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भोजपुरी कहानिया

आलोक पुराण ८ (चरण-लुटैया छंद)

आलोक पुराण ८  (चरण-लुटैया छंद)
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सावन के महीने में मौसमी आतंक अपने चरम पर है। राजनेताओं के विवादित बयान की तरह कभी भी बरस जाने वाली बूंदों के साथ जब पुरुआ हवा महागठबंधन बना लेती है तो नवजोत सिंह सिद्धू की तरह डोलने लगता है आलोक पाण्डेय का मन। सावन के महीने में बबिता की याद उनके दिल को कबूतर बना देती है,जो चौबीसों घंटे फुदकता रहता है। मन ही मन कजरी गाते आलोक पाण्डेय छत पर बैठ कर सोचते हैं, काश! आज इस बरसात में बबिता साथ होती तो अपने हाथों से पकौड़ा बना कर खिलाता उसे, पर वो तो मेरे दिल को ही पकौड़े की तरह गर्म तेल में ताल कर चली गयी। आलोक पाण्डेय को याद आता है, पहली बार मकई के खेत में प्रणय निवेदन करने पर बबिता ने उनके गाल पर कितना करारा थपड़ मारा था, हल्दीराम भुजिया की तरह कुरकुरा, नमकीन थप्पड़। अनायास हीं जीभ निकाल कर अपना ही गाल चूम लेने का प्रयास करते हैं आलोक पाण्डेय, पर पौने आधा घंटा तक लगातार प्रयास के बाद भी सफलता नहीं मिलती। प्रेमियों की सबसे बड़ी बीमारी यही है कि वे वो करना चाहते हैं जो उनके बस में है ही नहीं।

अचानक निचे से आवाज आयी, पापा आपका फोन है। आलोक पाण्डेय ने अनमने ढंग से ही फोन रिसिभ किया पर उधर की आवाज सुन कर चहक उठे- बबिता........

उधर से मादक आवाज गूंजी- हाँ पंडीजी कैसे हैं?

- अब क्या पूछती हो कि कैसे हैं। समझो की सावन की आग में जल रहे हैं।

- क्यों बीबी ने फिर पीटा है क्या?

-अरे जाओ, बड़ी आयी मजाक करने वाली, मेरे दिल का तो बर्गर बना के खा गयी, अब... खैर बताओ कहाँ आ के जान दूँ?

-अरे जान दे आपका दुश्मन। मैं तो बस यह पूछ रही थी कि यह चरण- लुटैया छंद क्या है, जानते हैं?

आलोक पाण्डेय ने तो कभी इस छंद का नाम भी नही सुना था पर बबिता के सामने अपने आप को अज्ञानी बताना ठीक नही लगा उनको। बोले- हाँ हाँ, जानता हूँ। मैंने तो इस छंद में सैकड़ों कविताएँ लिखी हैं।

- तो सुनिए ना, परसों इस छंद में एक कविता लिख कर लाइए ना बनारस। मैं आजकल बनारस में ही हूँ। आएंगे न?

-अरे क्यों नही, बबिता के लिए कविता लिख कर तो मैं यमलोक तक जा सकता हूँ। परसों ही आ रहा हूँ।

ठीक है।

फोन काटने के बाद आलोक पाण्डेय ने दिमाग पर जोर दिया पर इस चरण-लुटैया छंद के बारे में कुछ याद नही आया। तभी आलोक पाण्डेय को याद आया कि छन्दों का बहुत अच्छा जानकर डॉ नित्यानंद शुक्ला तो अपना मित्र ही है। उन्होंने तुरंत नित्यानंद को फोन किया और चरण- लुटैया छंद में एक शानदार कविता लिखने के लिए प्रार्थना किया। इस अद्भुत छंद के बारे में तो नित्यानंद भी कुछ नही जानते थे, पर जाने क्या सोच कर उन्होंने हामी भर दी। आलोक पाण्डेय ने डॉक्टर शुक्ला से बड़ी निवेदन किया कि एक दिन के लिए बनारस आ जाओ। डॉ शुक्ला बहुत मासूम जीव थे, तैयार हो गए। अगले दिन बनारस पहुचने की बात तय हो गयी।

आलोक पाण्डेय ने तुरंत ही बैग में कपड़ा लत्ता ठूसा और बीबी से बोले- देखो, मेरे एक दोस्त के यूट्रस में गांठ हो गयी है, सो उसी का ऑपरेशन हैं।उसी के साथ मैं बनारस जा रहा हूँ। दो दिन के बाद आऊंगा। बीबी कुछ बोलती इससे पहले ही आलोक पाण्डेय घर से निकल गए। इधर अर्धांगिनी नीतू मिश्रा का यह सोच सोच कर हालत ख़राब हो रहा था कि यह महिलाओं की बीमारी इनके किस दोस्त हो गयी।

**************

अगले दिन सुबह सुबह ही आलोक पाण्डेय होटल पहुचे जहां डॉ नित्यानंद शुक्ला पहले ही पहुच चुके थे। आलोक पाण्डेय बिना हाल चाल पूछे बोले- मेरी कविता लिखी?

भौंचक नित्य ने पूछा- हाँ लिख तो दी है, पर इतनी बेचैनी क्यों है?

-अरे यार, बबिता ने यह कविता मांगी है।

-हैं???????

-अरे हाँ यार, फोन कर के बोली कि चरण लुटैया छंद में कविता लिख कर दीजिये। अब प्रेम जो न कराये... जल्दी कविता दो कि याद करूँ और चलूँ उसके घर। मैंने तुमको इसी लिए बुलाया कि तुम रहोगे तो गलती पर सुधार दोगे।

अपने प्रेम में असफल प्रेमियों को दोस्तों की प्रेम कहानी में मदद करने की बड़ी जल्दी रहती है। नित्या भी तुरंत तैयार हो गए और आलोक पाण्डेय के साथ बबिता के घर पहुचे।

बबिता ने आलोक पाण्डेय का कैसा स्वागत किया यह बताने की सामर्थ्य नहीं मुझमे, बस यह समझ लीजिये कि इस भव्य और भावपूर्ण स्वागत पर सीधा सादा श्रीराम लागू टाइप का व्यक्ति भी इमरान हाश्मी टाइप फील करने लगेगा। फिर आलोक पाण्डेय तो यूँ ही महारसिक, वे तो जैसे...................

आलोक और नित्या को औपचारिक चाय पानी पिलाने के बाद आलोक से पुरे पौने सवा इंच की दुरी पर बैठ कर बबिता ने एक अद्भुत अदा से कहा- तब पंडीजी, कविता लाये?

- हाँ हाँ, बबिता की कविता के लिए मैंने पूरी जान लगा दी है। सुनो ना....

ये हुश्न ये निगाह का नेजा खुदुर बुदुर।

कि देख के करता है कलेजा खुदुर बुदुर।

पूछे है सब कि उनसे थुराते हो क्यों मियां,

कैसे कहूँ कैसा है ये मजा खुदुर बुदुर।

जालिम ने इतनी जोर से मारा था उस जगह,

दुनिया को दिखाने में भी होता खुदुर बुदुर।

दिल में छुपी थी तीर-ए-निगाहों की आरजू,

लेकिन मिली है खौफ-ए-बेलन खुदुर बुदुर।

आता है लुत्फ़े इश्क कि कदमों में गिरे हों,

वो बालों में घुमाए उँगलियाँ खुदुर बुदुर।

ग़ज़ल ख़त्म होने के बाद नित्य ने कुछ इस तरह वाह वाह की, जिस तरह मंचो पर एक कवि दूसरे कवि की घटिया से घटिया कविता पर भी यह सोच कर वाह वाह कर उठता है, कि यदि नही किया तो यह कमबख्त मेरी बारी आने पर वाह वाह नही करेगा। फिर दोनों ने बड़ी मासूमियत से बबिता की ओर देखा तो पाया कि उसका चेहरा लाल हो गया था। आलोक को इस लाली में प्रेम और प्रेम से उपजी लज्जा दिखी, वे मन ही मन मुलायम होने लगे। बबिता तुरंत उठी और "रुकिए आती हूँ" कह कर दूसरे कमरे में चली गयी। आलोक मन ही मन इस उम्मीद में मुस्कुराने लगे कि बबिता उधर से बरमाला ले कर निकलेगी। इधर डॉ नित्य यह सोच कर योगेन्द्र यादव हो रहे थे कि दुनिया एक प्रेमी जोड़े पर मेरे अतुल्य उपकार के लिए हमेशा मुझे याद रखेगी। दोनों की आँखे चकोर की तरह बबिता को खोज रही थीं, पर हाय! अगले ही क्षण कमरे में घुसा बबिता का बिडिओ पति, हाथ में कोड़ा और रौद्र रूप धारण किये हुए।

इससे पहले कि दोनों भाई कुछ समझें, कोड़ा दनादन बरसने लगा। आगबबूला बिडियो कहता जा रहा था- चरित्रहीन मास्टर, दूसरे की बीबी को देख के बड़ी खुदुर बुदुर होता है न तुमको,

रुक जा तेरी सब खुदुर बुदुर निकालता हूँ।

और तूँ डॉक्टर, तू किस फायदे के लिए आया था बे? बड़ी बाह बाह कर रहा था न, रुक तेरी बाह को आह में बदलता हूँ।

अब इस अत्याचार का वर्णन क्या करें, बस यह समझिये कि देखने वाले की करुणा से छाती फट जाती। कोड़ा गिरने पर आलोक पाण्डेय श्यामकल्याण के सुर में हाय हाय हाय हाय करते तो डॉक्टर शुक्ला भैरवी के सुर में हुइ हुइ हुइ हुइ करते। कभी जब कोड़ा जोर से बैठता तो दोनों इस तरह तुर तुर तुर तुर उहू उहू करते जैसे पंडित जसराज राग मल्हार में तराना गा रहे हों। कोड़ा गिरने पर दोनों उछलते तो नृत्य का ऐसा समा बंध जाता कि पंडित बिरजू महाराज देख लें तो सल्फास खा लें।

अगले आधे घंटे तक कोड़े की ताल पर भरतनाट्यम और कत्थक की जुगलबंदी की बेजोड़ अदाकारी दिखाने के बाद जब दोनों भागे तो उनका अंग अंग बामपंथी हो गया था। दोनों सर झुकाये भागे जा रहे थे। कुछ दूर जाने के बाद जब दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा तो एकाएक भोँकर कर रोने लगे, भोंsssssssssssss

आलोक पाण्डेय बात सुरु करने के लिए बोले- न जाने यह कमबख्त कहाँ से आ गया।

नित्यानंद बोले- भांड में जाये वो और जहन्नुम में जाये आपका प्यार। बकरा हो कर शेर की बीबी से प्यार करने की सलाह किस गधे ने दी थी आपको। पूरा अंग अंग इतना परपरा रहा है कि मन करता है आपको थूर दूँ.......

आलोक पाण्डेय डरते डरते बोलो- अच्छा नित्य, यह तो बता दो कि यह चरण लुटैया छंद है क्या?

डॉ शुक्ला ने उनकी तरफ इस तरह देखा जैसे खा जायेंगे। आलोक पाण्डेय चुप हो गए।

डॉ शुक्ला ने तुरंत दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी और रोते कलपते घर पहुचे। पर हाय! घर पहुचने पर पाया, बेगम हाथ में दहेज वाला नया बेलन लिए खड़ी थीं। डॉ शुक्ला हा हा करते, तबतक चालिसों बेलन गिर चुके थे। अंत में डॉ शुक्ला ने बेगम के पैर पकड़ लिया और करुण आवाज में बोले- आखिर ये तो बताओ कि मार क्यों रही हो?

- फट्ट.... हमको साफ बेवकूफ समझते हो? हमसे कह कर गए कि मरीज देखने जा रहे हैं, अंतड़ी में फ्रेक्चर हुआ है। रै झूठे, अंतड़ी में कहीं फ्रेक्चर होता है? वो तो अच्छा हुआ कि मैंने श्रीमुख बाबू को फोन कर दिया और सारी बात पता चल गयी। घर में बीबी को छोड़ कर दूसरे की बीबी को लाइन मारने जाते शर्म नही आई?

डॉ शुक्ला बोले- देखिये डार्लिंग जी, अपनी करनी की बहुत सजा भोग चूका हूँ। बबिता के पति ने इतनी सेंकाई की है कि पुरे अंग अंग में क्रांति हो गयी है। अब माफ़ कर दीजिये, दुबारा फिर गलती नही होगी।

अर्धांगिनी लाल आँख किये हुए किचेन में घुस गयीं। ताजा खबर यह है कि चार दिन से डॉ शुक्ला सोफा पर सो रहे हैं।

उधर लुटे पिटे आलोक पाण्डेय जब होटल पहुचे तभी मोबाईल की घंटी बजी। फोन उठाया तो देखा कि बबिता थी। कोंहरते हुए बोले- अस्ति कश्चित् वाकविशेषः?

उधर से आवाज आई, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ पंडीजी, मुझे बिल्कुल भी पता नही था कि बिडिओ साहब इतनी जल्दी घर आ जायेंगे। आपको पिटते देख कर मैं कितना रोयीं हूँ यह मैं ही जानती हूँ। लग रहा था जैसे कोड़े आपकी पीठ पर नहीं, मेरे दिल पर गिर रहे हैं।

आलोक बोले- झूंठ मत बोलो बबिता, मुझे तो लगता है कि यह तुम्हारी सोची समझी चाल थी।

- नहीं नहीं पंडीजी, मेरा विश्वास कीजिये। मैं निर्मल बाबा और अहमद बुखारी दोनों की कसम खा कर कहती हूँ- मेरा कोई दोष नहीं। मैं तो आपको बहुत.......

-क्या? क्या कहा बबिता? तनिक एक बार फिर से कहो तो....

-छोड़िये। जब आपको भरोषा ही नहीं तो क्या कहूँ।

फोन कट गया पर आलोक पाण्डेय का सारा दर्द छु मन्तर हो गया था। उन्होंने मन ही मन सोचा कि अबकी किसी दूसरे कवि से चरण लुटैया छंद लिखवा कर ले जाऊंगा। यह नित्यानंद झूठ मुठ का कवि बनता है, लिखने आता नहीं। कोड़ा खा के कैसे घोडा जैसा कूद रहा था। मैं तो उछलता भी ऐसा था जैसे कोई कत्थक गीतगोविंद गा कर पावटी मार रहा हो।

आलोक पाण्डेय को तुरंत ही याद आया, बनारस वाले सर्वेश त्रिपाठी से अच्छा छंद लिखने वाला कवि कोई नहीं। अबकी उसी से लिखवाउंगा और उसी को ले कर जाऊंगा। एकबार तो उन्होंने सोचा कि आज ही सर्वेश से मिलूं, पर फिर सोचे कि दस दिन में मार का दर्द ख़त्म हो जाय तब दुबारा आऊंगा।

अगले दिन शाम को आलोक पाण्डेय घर पहुचे तो पत्नी मुस्कुराती हुई बोली- आपके दोस्त के यूट्रस का ऑपरेशन हो गया?

आलोक बोले- छोडो भी....

- आपको तो झूठ बोलना भी नही आता महाराज, तनिक बताइये तो आपके किस दोस्त को यूट्रस है?

- अरे छोडो ना...

-मुझे पता है, आप बबिता के घर की ओर गए होंगे। पर आखिर दो दिन तक क्या करते रहे? अबकी ज्यादा बबितवास गए थे क्या?

- अब आलोक भी मुस्कुरा उठे थे, छोडो यार...

तुमसे अच्छा कोई नही है।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

मोतीझील...............

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