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भोजपुरी कहानिया

पून्नू पंडित ..........: रिवेश प्रताप सिंह

पून्नू पंडित  ..........: रिवेश प्रताप सिंह
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आंगन के चारो ओर सटा बरामदा और पूरब तरफ के बरामदे में किनारे, पीढ़ा पर बैठकर मनोहर मिसिर आम के रेशे रेशे में घुसकर मिठास की अन्तिम पड़ताल में लगे थे। यहाँ तक की गुठलियों नें अपनी दाढ़ी तक उनके हवाले कर दी लेकिन मजाल क्या है कि गुठली के दाढ़ी में रंच मात्र भी मिठास और पीलापन बचा रह जाये। कुतरने, सुड़कने, चुभलाने और खखोरने के बाद भी यदि कोई क्रिया बचती तो वह भी लगा देते लेकिन यह नहीं मंजूर कि उनके हाथ से छूटे छिलके या गुठली से कोई एक ग्राम या एक बूंद भी चाट या चूस सके। ऐसा नहीं था कि इस रस युद्ध में कोई प्रतिस्पर्धी नहीं था.. जितनी बार वह आम के रस मार्ग पर आक्रमण करते मक्खियों की एक टोली आम से लेकर इनके मुख तक छापामार सैनिकों की तरह तुरन्त आक्रमण करती। मिसिर जी का एक हाथ लगातार विरोधियों को पीछे ढकेलने में सक्रिय था. लेकिन विरोधी टोली भी बेहद महत्वाकांक्षी. इनके लगातार खदेड़ने पर भी सैनिक टुकड़ी मनोहर बाबू से लगातार लोहा ले रही थी। आम की त्वचा व इनके खुरदरे होठों के बीच से यदि कोई रस की बूंद टपक जाती तो टोली कुछ देर के लिए भ्रमित हो जाती लेकिन मुख्य टोली आम के मूवमेंट पर लगातार नजर बनाये हुई थी। अन्तोगत्वा मिसिर जी रस विहीन अवशेष, टोली को सुपुर्द करके नलका पर हाथ धोने चले गये। हालांकि कुछ मक्खियों ने उनका नल से लेकर बाहर तक पीछा किया लेकिन बाद में उन्होंने गमछा उठाकर एक गंभीर चेतावनी या यूं कहें कि जान से मारने की धमकी दे डाली।

अब मनोहर मिसिर करें भी क्या ? पिछले तीन महीने से बाग में टिकोरा रखा रहे थे.. तीन महीने से चौराहा, नात, यहाँ तक अपने कोठरी तक में नहीं ढूके। मन में हमेशा एक डर कि कहीं कोई ईंटा न चला दे, गुच्ची न मार दे...तनिक सी बयार क्या बही कि दौड़ पड़े लाठी लेकर। बाग में एक तरफ मिसिरजी टिकोरा बीन रहें हैं और दूसरी ओर गांव के लड़को को झिड़क रहें हैं लड़के भी कहां माने वाले..लाख लाठी तानो आठ-दस टिकोरा तो सीने पर चढ़कर ले ही जायेंगे।

टिकोरा और आम के चक्कर में आधा गांव को दुश्मन बना लिये मनोहर मिसिर... उनका खुद का लड़का खुद उनका दुश्मन बन बैठा है। एक दिन अम्मा से बोल दिया कि "अम्मा आज के बाद अगर अपने बाग के एक टिकोरा भी चीख लिये तो कहना" बाऊ त एकदम्मै सनक गये हैं दू-चार टिकोरा खातिर फौजदारी कर ले रहे हैं.. यहाँ तक गांव के नात-बांत क लइके तक नाहीं चिन्हत हवं बाऊजी।
मनोहर मिसिर दस बीस गाँव के भीतर जाने-पहचाने वाले सभ्रांत व्यक्ति और परिवार से ताल्लुक़ात रखते हैं। खेती बाड़ी से मजबूत लेकिन जबान से खरखर...अगर कोई बात बुरी लग गई तो सिवान तक ताड़ कर लोहा लेते हैं मनोहर मिसिर। परिवार में बूढ़ी माई, घोर धार्मिक पत्नी एक बिटिया और एक सुपुत्र... बिटिया बाइस साल की बिटवा उन्नीस बरस का। अबकी बरस बिटिया का बिआह भी खोजना है लेकिन अबकी आम कहीं डोलने की इजाज़त नहीं दे रहा। घर में किसके भरोसे पूरा बाग छोड़ें मिसिर जी। माई को मोटी-मोटी भीत नहीं सुझाती तो आम और टिकोरा कैसे निहारें। मेहरारू को जागते भर पूजा-पत्रिका से फुर्सत नहीं... बिटिया को बाहर भेज नहीं सकते और उनके सुपुत्र 'पून्नू बाबू' पतंग की तरह पूरे गाँव उड़ते फिरते हैं। बिचारे मजबूरन बाग में खटिया लगाकर एक-एक आम पर नजर गड़ाए पहरेदारी करते हैं मनोहर मिसिर
"का बात है पून्नू आजकल आम नहीं खा रहे कवनो बात है का हो"मिसिर जी आम चूसना छोड़कर बेना हांकते पंडिताइन से पूछे।
"आप पर खिसियाए हैं पून्नू"
"काहें" मिसिर जी चौंके।
कह रहा था कि बाबूजी आम के चक्कर में पूरे गाँव से दुश्मनी ले लिए हैं.. एक ठो टिकोरा के चक्कर में दूसरे के दुआर पर चढ़कर गरियाते हैं बड़ी बेइज़्ज़ती होती है अम्मा।

"तो का करें लुटा दें पूरा बाग! एतना रखवारी पर आठ-दस आम रोज बीन ले जाते हैं नासपीटे..छोड़ दें तो पतई-पुनगी न बचे। करतूत एक पईसे की नहीं, चले हैं कानून बघारे।" मिसिर जी खिन्नता भाव से आम की गरदन दबाकर रस और गुद्दे की एक छोटी किश्त चूसकर ग्रीवा के अधीन किये.. "चौबीस घंटे हम रखवाली करें चनक्का घाम में देह जरावें और इनकी नाक बचाने के लिये दानखाता खोल दें हम... खायें चाहें न खायें लेकिन अपने जीते जी हम न लुटा पायेंगे अपना बाग-बगीचा.. कह देना जब इनकी मलिकई आयेगी तब खायें, चाहें लुटायें लेकिन अपने जीते जी हम नहीं देख पायेंगे अपनी रियासत लुटते" कहते हुए पीढ़ा छोड़कर तमतमाते हुए खड़े हो गये मिसिरजी।
सांझ के बेला बाग में रोज खटिया लगती गाँव के उनके साथी-सोहबाती और ताश और ताड़ी के शौकीन लड़को का जमावड़ा लगा रहता। आज मिसिर जी थोड़े चिंतामग्न बैठे थे। अगल-बगल गांव के लड़के घेरे पड़े थे उनको।
"का बात है बाबा बड़ा चुप्प साधे हैं कवनो बात है का' बनवारी काका पगहा बरते हुए मिसिर जी की और ताककर बोले...
"कुछ नाहीं बनवारी, आज कल के लड़के भी पता नाहीं कवने दिमाग़ के पैदा हो रहें हैं। एक ठो हमार पून्नूवा है आजकल खिसियाया है हमसे। अम्मा से कह रहा था कि बाबूजी आम के चक्कर में पूरे गांव से अझुरा जाते हैं। बताओ तनि एतना मेहनत से बाग लगायें और रखायें हैं लुटावे के खातिर ? और हम बिना मतलब के किसी से अझुरायें हों तो बतावे।
"ए बाबा आप न बूझेंगे इ सब खेल"
दिनेशवा पान का दहला फेंककर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए बोला।
"काहें न बूझेंगे रे हम" मिसिर जी चिहुँक के दिनेशवा की ओर ताके.
बाबा! पून्नू दोसरी दुनिया में उड़ रहें हैं उनको बाग-बगईचा से का मतलब, उ जागत भर केवल उत्तर टोला में अमरजीतवा के दोकान पर ही तख्ता रखाते हैं।
"ऊंहा का करता है पून्नूवा" मिसिरजी थोड़े बेचैन होकर दिनेशवा की ओर बढ़े।
"उ त केवल बइठे क अड्डा है। पून्नू मेवा के छोटकी बिटियवा के फेर में पड़े हैं बाबा। मामूली आम पहुँचाये मेवा के घर पून्नू... आप त जानी नहीँ पाते।"
"अच्छा! ई बात" मिसिरजी चौंककर बोले।
"अऊर का" दिनेशवा पूरे विश्वास से अपनी बात ठोंककर कहा..
"बाबा! पून्नू को पूरे गांव से का मतलब। पून्नू आपसे ए लिये खिसियाये हैं .....काहें कि, एक दिन आप चीन्ह नाहीं पाये अऊर रिसिया के जवन दू लड़कन को एक-एक झापड़ मारे थे ओम्मे मेवा के बड़की लड़की क लड़कवा भी था। ऊ रोते-रोते घर जाके कह दिया कि रऊरे आम खातिर मारे हैं ओही दिन से लईकवा क मौसिया पून्नू से बोलल छोड़ देहले बा.. एक्को आम चाहें टिकोरा देखल नाहीं चाहतिया.. एही लिये पून्नू रऊरा से खिसियाये हैं..समझलीं बाबा"
"त ई बात है" मिसिर जी लम्बी सांस छोड़कर खटिया छोड़कर जमीन पर बैठ गये। मिसिरजी पूरी रात बेचैन रहे लेकिन न तो पून्नू से कुछ कहे न उनकी अम्मा से...
सुबह आठ बजे मिसिर जी बाग में खटिया लगाकर बैठे थे तभी मेवालाल अपने नाती को साईकिल पर बिठाकर बाग के बीचोंबीच लीक से गुजर रहे थे।
मिसिर जी मेवालाल को देखकर तेज आवाज़ लगाये।
"मेवा ए मेवा"
"हां बाबा! नमस्ते" मेवालाल साईकिल को पैर के पंजे के बल रोककर मिसिरजी का अभिवादन किये।
"कहां सुबहियें सुबहियें" मिसिरजी खटिया पर से उठकर मेवालाल के करीब जा पहुंचे।
"बाबा, ई नतिया जलेबी खाये के कहत बा"
"नाती ह तुहार"
"हां बाबा"
"हम त चीन्हीं न पाये"
"हे आओ नाती" मिसिरजी पुचकारते हुए बच्चे को अपने गोद में उठाना चाहे लेकिन बच्चा उनके डर से साईकिल की सीट जोर से पकड़ लिया और करियर से नहीं उतरा। मिसिरजी जब यह समझ गये कि बच्चा मार के डर से नहीं आ रहा तो लपक कर बोरा मे से दो दशहरी आम निकाल लाये और दोनों दशहरी निकालकर उसके दोनों हाथ में थमा दिये और उसका गाल पकड़कर बोले जब आम खाये क मन करी त चली अईहं नाती।
मेवालाल का नाती आम लेकर मगन और तनिक डर से भी मुक्त हुआ। अब दुपहरिया में बागी ओर टहले लगा बाबा से बतियावे भी लगा। उधर मिसिरजी बच्चे को आम देकर परका दिये..एक-दो दिन में बच्चा पूरा घुल मिल गया।
एक दिन मेवा का नाती मिसिर जी के बगल में बैठकर आम चूस रहा था तभी पून्नू बाबू बाग से गुजरे.. मेवा के नाती को आम चूसते देखकर पून्नू की धड़कने तेज हो गयीं। पून्नू धीरे कदमों से बढ़कर बाबूजी के पास रुककर कुछ देर तो खामोश रहे लेकिन अन्दर की बेचैनी से शब्द फूट कर निकले..
"बाबूजी इ के है"
बाबूजी पून्नू की आँख में झाँककर व्यंगातमक लहजे में बोले..
"नात-बांत"
"बाऊजी केकरे घर क लइका ह ई " पून्नू अनभिज्ञता दिखाते हुए मासूम बनते हुए पूछे..
मिसिर जी पून्नू को इशारे से बैठने को बोले और लम्बी सांस खींकर पांच सेकंड चुप साध लिये..
उधर पून्नू कंपन करते हुए पैरों के साथ खटिया के ओरचन पर बैठ गये।
"पून्नू पंडित! जब हम तोहरे उमर के रहे तो दू-दू कोस से अपने कपार पर आम क पौधा लाद-लाद कर इ बाग लगाये थे.. जैसे आज तूँ उत्तर टोला में बाग लगाये हो..हम पूरा दिन छोट-छोट पेडों की रखवाली करत रहे एही बागी में बईठ के...जैसे तूं अमरजीतवां के दुकान पर बैईठ के मेवालाल क बाग रखावत हवअ..
"बेटा, बहुत तकलीफ़ होत ह चाहें केहू हमरे बाग में ढेला मारे, चाहें तूं केहू के बाग में..... पून्नू पंडित! बहुत जतन किये हैं अपने बाग का हम, तब जाके आम से लदल रहेला बाग। बेटवा! आपन जतन करअ..समय से फल नाहीं लगी त केहू ताकि नाहीं... ढेला मारल त दूर क बात हवे..समझत बाटअ न बबुआ..." मिसिरजी पून्नू को घूरते हुए बोले।
पून्नू बाबू के सामने अन्हरिया नाचने लगा धीरे से बाबूजी से बोले " बाबूजी आप गलत समझ रहे हैं"
मिसिरजी खटिया पर से खड़े हो गये और हाथ में लाठी थामें एकदम पून्नू के करीब पहुंच कर बोले।
" पून्नूवा हम त गलत समझत हंईं लेकिन जब हमार लठिया लगी समझावे त तुहार कुल भूत उतर जायी बेटा... समय बा सुधर जा नाहीं त.....बूझते बाटं.."
पून्नू बोले " जी बाबूजी"
पूरे बाग में सन्नाटा छा गया केवल मेवा का नाती अभी भी रस चूसने में मगन था।
तभी मिसिर जी पून्नू से पूछे- " आम खईबअ"
पून्नू सिर से हाँ का इशारा करके मुंह धसांकर बैठ गये।
मिसिरजी दो ठो बड़की दशहरी निकालकर पून्नू को थमाकर बोले "हई ल चूसअ" अऊर आज के बाद अगर उत्तर टोला क ओर लऊक गईल त ठीक ना होई"
पून्नू धीरे से आम उठाकर चूसने लगे वो बात अलग थी की उनके दिल में जो तूफान उमड़ रहा था उसमें न जाने कितने पेड़ जमींदोज हो रहें थे लेकिन दिल पर पत्थर रखकर एक हाथ से मक्खियों को हांक रहे थे और लगातार मेवा के नाती को भरी आँख से घूरते हुए आम चूसे जा रहे थे।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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