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भोजपुरी कहानिया

सुनो न भउजी,.....किसी ने कहा कि मैं तुमपर लिखूं

सुनो न भउजी,.....किसी ने कहा कि मैं तुमपर लिखूं
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किसी ने कहा कि मैं तुमपर लिखूं। अब तुम ही बताओ न कि क्या लिखूं।
तुम्हारे अधरों को देख कर मेरी दशा उस किसान के जैसी हो जाती है जिसके खेत की फसल सूख रही हो, और अंतिम आश के साथ बादल की ओर टकटकी लगा कर देखती उसकी आँखें कुहुक कर कहें- आह! बरस जा रे देव... बस एक्को बून्द...! एक मरते ब्राह्मण की एक बूंद गंगाजल के लिए तड़प समझ सके कोई तो समझे मेरा शृंगार, तुम्हारे अधर मुझे बिम्बफल नहीं, जीवन की आश लगते हैं।
ईश्वर जाने वे कैसे कवि हैं जिन्हें किसी रूपसी की आंखों में झील, तालाब, समुद्र आदि दिखते हैं। मानोगी? तुम्हारी नीली आंखों से तुलना कर सकूँ, ऐसी कोई वस्तु ईश्वर ने बनाई ही नहीं। इनमें एक बार अपनी तस्वीर देख लेने के लिए प्रलय के दिन तक जी सकता हूँ मैं...
अच्छा, कभी तुमनें ध्यान से निहारा है अपनी अथाह केश राशि को? लगता है जैसे दूर कहीं जहाँ धरती और आकाश मिलते हैं, वहाँ तक की काली मिट्टी वाली उपजाऊं धरती हाथ फैलाये बुला रही है, "आओ सर्वेश! जमा लो अधिकार मुझ पर... बन जाओ जमींदार..." सच कहूँ तो लोभी हो जाता हूँ तब, अन्यथा मुझे धन-सम्पदा से क्या काम? मैं तो सन्त...
एक बात बताता हूँ। मैं गंवार आदमी! इस गुलाबी साड़ी में तुम मुझे उस मदमत्त गेहुअन सांप की तरह लगती हो, जो अब अपनी केंचुल उतार देना चाहता है। पर सुनो न! केंचुल साँप का स्वाभिमान होता है, केंचुल उतारने के बाद पख भर शिथिल पड़ा रहता है वह। छोड़ो उन बूढ़े रसिक कवियों को जो नग्नता में ही सौंदर्य 'जोहते' हैं। इस गुलाबी वस्त्र में लिपटी तुम इस ब्रह्मांड की मलिकाइन लगती हो, जिसके आँचल में आठों ग्रह टँगे हुए हैं।
एक बात पूछूँ? कभी तुमने स्वयं ध्यान से अपनी खनक सुनी है? अरे वही पायलों, कंगनों की खनक... जानती हो, मुझ जैसे देहाती व्यक्ति के कानों को सबसे अधिक आनंद तब मिलता है जब चैत के महीने में पछुआ के झोंके पर गेहूँ की बालियाँ आपस मे टकरा कर सोहर की धुन बजाती हैं। सौगन्ध ईश्वर की! तुम्हारे नूपुर-कंकड़ों का संगीत उस संगीत से सूत भर भी 'दब' निकले तो मूछें रख लूँ। कभी सुनना ध्यान से...
कभी तारों से भरे आकाश के बीच में छत पर बैठ कर पूछना अपनी अनामिका में फंसी उस रजत की अंगूठी से, काम ने जिस वाण से शिव को जगाया था उसी के अवशेष से बनी है न? लिख के रख लो, तुम्हारी उँगली की बस्तु पूरे ब्रह्मांड को बांध सकती है।
अच्छा छोड़ो! कल किसी कवि को पढ़ा, "सौंदर्य अद्वैत में भी द्वंद करा सकता है"। मैं कहता हूँ, जहाँ तुम हो वहाँ द्वंद कैसा? तुम्हारा होना ही तो अद्वैत है... जो है सब तुम ही हो। वह सौंदर्य ही क्या, जिसके समक्ष खड़ा व्यक्ति कुछ और सोच सके... तुम्हें निहारते व्यक्ति का गला भी चुपके से कोई काट ले तो उसे पता न चले...
मैनें देखा है, शृंगार लिखने वाले सभी बूढ़े कवियों ने अंत में "अभिसार" का लोभ दिखा ही दिया है। मैं कहता हूँ तुम्हारा सौंदर्य सम्मोहन के उस उच्चतम शिखर पर ले जाता है जहाँ लोभ नहीं वैराग्य जन्म लेता है। अभिसार और तुम? मैं तुम्हारे भौंहों की धार से अपना गला न काट लूँ?

एक बात और कहूँ? छोड़ो नहीं कहूँगा....

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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