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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "मन न भए दस बीस"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  मन न भए दस बीस
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झाँसी और ग्वालियर के बीच में राजपूतों का एक छोटा सा गाँव था, रामपुर। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ की मिट्टी फसल से अधिक योद्धा उपजाती थी। उन्नीसवीं शताब्दी के बीच के दिनों में ग्वालियर और झाँसी दोनों राजघराने अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुए थे, सो रामपुर के अधिकांश युवक इन्ही दोनों राजघरानों के सैनिक थे। वीरता और समर्पण राजपूतों की पहचान थी, रामपुर के सैनिक भी अपनी-अपनी सेना में अपनी पहचान बनाये हुए थे।
रामपुर में दो मित्रों की जोड़ी बहुत प्रसिद्ध थी। ग्वालियर महाराज सिंधिया की सेना में गुल्मपति रघुबीर सिंह, और महाराज झाँसी की सेना के सैनिक कृष्णदेव सिंह बाल्यकाल से ही घनिष्ट मित्र थे। सामान्यतः दोनों गांव के बाहर अपनी-अपनी सेना में ही रहते थे, पर पर्व-त्योहारों में जब दोनों गांव आते तो कुछ दिनों तक गांव में उनकी मित्रता के चर्चे ही छाए रहते। जितने दिन वे गांव में रहते उतने दिन वे सदैव एक साथ ही दिखते थे।
ईश्वर ने दोनों को एक-एक सन्तान ही दी थी। रघुवीर एक पुत्र 'प्रताप' के पिता थे, और कृष्णदेव एक पुत्री 'कृतिका' के पिता।
दोनों अपनी सन्तति से संतुष्ट थे।
रघुवीर और कृष्णदेव की मित्रता अगली पीढ़ी को भी विरासत में मिल गयी थी, प्रताप और कृतिका दोनों में बहुत घनिष्टता थी। दिन भर दोनों एक ही साथ दिखते थे। बच्चों के प्रगाढ़ सम्बन्ध पर कृष्णदेव और रघुबीर दोनों ही प्रसन्न थे। दोनों राजपूत थे और दोनों के गोत्र भी अलग थे, सो उन्होंने मन ही मन मित्र से सम्बन्धी बनने का विचार बना लिया था।
समय के साथ प्रताप और कृतिका का प्रेम बढ़ता ही जाता था।
समय अपनी चाल से बह रहा था...
उन्नीसवीं सदी का कालखण्ड भारतीय राजघरानों के लिए अत्यंत कठिन था। उनकी शक्ति लगातार कम हो रही थी, और अंग्रेजों की राज्य हड़प की हवस लगातार बढ़ती जा रही थी। ऐसी परिस्थिति में सभी राजघरानों ने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए नए सैनिकों की नियुक्ति करनी प्रारम्भ कर दी। प्रताप के पिता सिंधिया राज्य के सैनिक थे, सो प्रताप भी सिंधिया सेना में सैनिक बन गया। उधर कृतिका के पिता अब नियमित रूप से झांसी की राजधानी में ही रहने लगे थे, सो उनका पूरा परिवार भी गांव से झांसी चला गया था।
प्रेम यदि पवित्र हो तो दूरी उसे और प्रगाढ़ करती है। प्रताप और कृतिका दोनों अब दूर थे, पर सदैव एक दूसरे के हृदय में बसते थे।
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झाँसी नरेश गंगाधर राव नेवालकर की मृत्यु के बाद वहाँ का शासन 22 वर्ष की महारानी लक्ष्मी ने संभाला था, और निसंतान होने के कारण उन्होंने एक बालक को गोद लिया था। महारानी जानती थीं कि दुष्ट डलहौजी की आँख उनके राज्य पर लगी हुई है, सो वे भी सतर्क थीं। महारानी ने स्त्रियों की भी एक स्वयंसेवक सेना बनाई थी, कृतिका उस सेना की एक अंग थी।
उधर ग्वालियर का शासन बाइस वर्ष के ही जयाजीराव सिंधिया के हाथ में था जिसे वे अपनी माता की छत्रछाया में ढो रहे थे। अंग्रेजों से अपने राज्य को बचाने के लिए सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों के साथ मित्रवत सम्बन्ध बना लिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो सिंधिया राज्य अंग्रेजों के अधीन था।
1857 का विश्वप्रसिद्ध आंदोलन सुलग रहा था। लगभग पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्रों में धार लगाए जा रहे थे। ग्वालियर में भी राजघराने की नपुंसकता से ऊब कर अनेक सैनिकों ने विद्रोह का मन बना लिया था, पर अब भी आधे से अधिक सैनिक राजपरिवार के साथ निष्ठा से बंधे थे। प्रताप उन्ही निष्ठावान सैनिकों में से एक था।
लार्ड डलहौजी देशी राज्यों को हड़पने के लिए नीचता ही हर सीमा को लांघ रहा था। गोद निषेध के बहाने उसने झाँसी को हड़पने का प्रयास किया, और महारानी लक्ष्मी ने विद्रोह कर दिया।
महारानी लक्ष्मी के युद्ध और उनकी वीरता का वर्णन व्यर्थ है। वे विश्व की समस्त नारियों का गौरव थीं। अंग्रेजों से लड़ती महारानी की सेना जब ग्वालियर पहुँची तो ग्वालियर के विद्रोही सैनिक उनके साथ मिल गए। यहां सिंधिया सेना से एक छोटे युद्ध के बाद महारानी की सेना ने ग्वालियर के एक किले पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध मे प्रताप और कृतिका आमने सामने थे।
कहते हैं, यह वह युग था जब ब्रिटिश सरकार में सूर्य अस्त नहीं होता था। उस युग में ब्रिटिश सेना से एक छोटे राज्य की महारानी का युद्ध "आत्मोत्सर्ग का युद्ध" ही था। महारानी यह युद्ध राज्य के लिए नहीं, बल्कि भारत के स्वाभिमान के लिए लड़ रही थीं। उनकी पराजय तो निश्चित ही थी। अंत में ह्यूरोज की सेना से लड़ते लड़ते महारानी ने वीरगति पायी। स्वयंसेवक सेना की वीर नायिकाओं ने उनके शव का वन में एक साधु की कुटिया के पास अंतिम संस्कार कर दिया। कृतिका वहीं थी।
महारानी की चिता जल रही थी तभी प्रताप वहाँ पहुँचा। कृतिका ने मुह घुमा लिया। कुछ क्षण की शांति के बाद प्रताप ने कहा- "मुझे क्षमा करना कृतिका, मैं राजपरिवार के साथ अपनी निष्ठा से बंधा था।"
कृतिका ने शीश झुका कर ही कहा- " जो मातृभूमि के स्वाभिमान के विरुद्ध हो, वह निष्ठा निष्ठा नहीं होती प्रताप! नीचता होती है। चले जाओ, अब हमारे बीच कोई सम्बन्ध नहीं।"
-"मुझे क्षमा करो कृतिका, मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ"
-"अब कोई लाभ नहीं प्रताप, मुझे तुमसे घृणा हो गयी है। तुम मातृभूमि के अपराधी हो। तुम्हें क्षमा कर दिया तो कदाचित स्वयं को कभी क्षमा न कर सकूं। कृपा कर के चले जाओ यहां से..."
-"इतनी निष्ठुर न बनो कृतिका, हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं।"
-"अब उस प्रेम का स्मरण न कराओ प्रताप! हमारा प्रेम महारानी की चिता में ही जल चुका है।ध्यान से देखो, इस चिता में एक रानी का शव ही नहीं जल रहा, पूरा भारत जल रहा है।"
-"कृतिका..."
-"चले जाओ प्रताप! मैं तुम्हें दोष नहीं दे रही, पर ईश्वर को शायद हमारा साथ स्वीकार नहीं। मैं कब क्या कर बैठूं, कह नहीं सकती..."
प्रेम मनुष्य को धृष्ट बना देता है। प्रताप कृतिका पर अपना अधिकार समझता था। उसने हाथ बढ़ा कर कृतिका का हाथ पकड़ना चाहा, पर कृतिका ने पल भर में ही तलवार के एक हाथ से प्रताप की भुजा उड़ा दी।
पल भर की शांति... फिर फफक कर प्रताप से लिपट गयी कृतिका। प्रताप की कटी भुजा से बहता रक्त कृतिका की मांग भर रहा था।
महारानी का शव जल गया था। प्रताप से अलग हो कर कृतिका ने एक मुट्ठी चिताभस्म अपने माथे पर लगाया, और वहाँ से चली... तड़पता प्रताप उसे जाते देखता रहा।
समय अपनी चाल से बह रहा था....
नेपाल की तराई में एक नाथपंथी मठ पर एक साध्वी रहा करती थी। वह हमेशा सूरदास का एक ही भजन गाती- "ऊधो!मन न भए दस बीस...."
उसका मुह कृतिका जैसा लगता था।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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