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भोजपुरी कहानिया

कौवे और गिद्ध (कथा)

कौवे और गिद्ध (कथा)
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युगों पुरानी बात है, मूर्खिस्तान के जंगल में असंख्य प्रजाति के पशु पक्षी बड़े प्रेम से रहा करते थे। प्रेम इसलिए था, कि सब अपना अपना आहार इकट्ठा करते थे; अपना खाते थे, सो झंझट का कोई कारण ही नहीं था। पक्षियों में कौवे और गौरैये ही अधिक संख्या में थे, अन्य पक्षियों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।
मूर्खिस्तान के जंगल में गिद्ध भी रहा करते थे, पर उनकी संख्या तनिक कम थी। गिद्धों को जंगल में भोजन का बड़ा कष्ट होता था। जंगल में जब कोई पशु मरता तो उसका माँस शेर, बाघ, गीदड़ आदि पशु खा जाते थे, गिद्धों को कुछ नहीं मिलता था।
गिद्धों के पास शेरों, बाघों से लड़ने की सामर्थ्य तो थी नहीं, इसलिए वे बड़े कष्ट में थे।
वैसे गिद्धों के कष्ट का वास्तविक कारण यह था कि वे सिर्फ माँस ही खाते थे। अब जंगल में इतना माँस कहाँ से आता कि उन्हें रोज माँस मिलता? कई बार उन्हें अन्य पक्षियों नें समझाया कि भइया साग-भाजी भी खाओ, पर गिद्ध मानते ही नहीं थे। वे हमेशा एक ही बात कहते " हमारा संबिधान हमें सिर्फ माँस खाने की इजाजत देता है, हम अपने संविधान से अलग नहीं जा सकते।"
गिद्धों को जब पशु माँस नहीं मिलता, तो वे पक्षियों को ही मार कर खाते थे। हालाँकि गिद्ध सामने आकर पक्षियों को नहीं मारते थे, क्योंकि सारे पक्षी एक साथ मिल कर उनका प्रतिरोध करने लगते, और गिद्धों को भागना पड़ता था। फिर भी उनके आतंक से जंगल के पक्षी सदैव परेशान रहा करते थे।
कुछ गिद्ध शहर जा कर वहाँ से भी माँस लाते थे।
जंगल में गिद्धों के दिन यूँ ही कट रहे थे...
एक दिन गिद्धों के नेताओं ने आपात बैठक की। गिद्धों की बैठक में सामान्यतः कोई अन्य पक्षी तो जाता नहीं था, सो किसी को भनक भी नहीं लगी कि बैठक में क्या प्रस्ताव पारित हुआ।
अगले दिन से गिद्ध कौवों के आसपास मंडराने लगे। पहले तो कौवे बहुत डरे; पर उन्होंने देखा कि अब गिद्ध उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचा रहे थे, सो धीरे-धीरे उनका भय कम होने लगा। कुछ ही दिनों में गिद्धों और कौवों में बातचीत भी होने लगी...
गिद्ध कौवों से कहते, " अरे हमसे क्या डरना भाई! हम दोनों तो भाई हैं। देखो न, तुमलोग भी कभी कभी माँस खा लेते हो, हम भी माँस खाते हैं। हम दोनों का रंग भी एक ही है। फिर हम भाई भाई हुए कि नहीं? हमसे मत डरो... हम तुमलोगों को नुकसान नहीं पहुचायेंगे।"
कौवों को धीरे धीरे गिद्धों की बात अच्छी लगने लगी।
कुछ दिनों बाद गिद्धों ने कौवों से कहना प्रारम्भ किया, "देखो भाई! तुमलोगों का तो युगों से शोषण होता आया है, दुष्ट गौरैये तुम्हारा हक मारते रहे हैं। तुम्हें तो उनके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए।"
नकारात्मक बातें बहुत जल्द प्रभावित करती हैं। कौवों को लगने लगा कि सचमुच गौरैये उनका हक मार लेते हैं। युवक कौवे जहाँ-तहाँ 'गौरैया मुर्दाबाद' के नारे लगाने लगे।
गिद्धों की कुछ मिशनरियां भी थीं। मिशनरियों के सिद्ध गिद्ध घूम-घूम कर कौवों को समझाने लगे, "देखो भाइयों! ईश्वर की असली सन्तान तो गिद्ध ही हैं, तुमलोग भी गिद्ध बन जाओ तो हमारा ईश्वर तुम्हारे सब दुख दूर कर देगा। गिद्ध बनते ही तुम्हारा शोषण भी बंद हो जाएगा।"
मिशनरियों के सिद्ध गिद्ध बाहर से आये माँस में से थोड़ा-थोड़ा कुछ कौवों को भी देते। मुफ्त का माँस खाने वाले कौवे भी गिद्धों का प्रचार करने लगे।
वे कहते- " हमारे प्यारे कौवे भाइयों! गिद्धत्व की शरण में आने से हमारे सारे दुख दूर हो गए हैं। हम जब सोये रहते हैं तभी ईश्वर का प्यारा दूत हमारे मुह में माँस डाल जाता है। तुम सब भी गिद्ध हो जाओ, तो दुख दूर हो जाएगा।"
युवा कौवे गिद्धों से प्रभावित हो कर स्वयं को भी गिद्ध कहने लगे।
कुछ बूढ़े कौवों ने युवकों को समझाना चाहा- " देखो बच्चों, इन गिद्धों के चक्कर में मत पड़ो। ये बड़े क्रूर और शातिर हैं। ये हमेशा हमें मार मार कर खाते रहे हैं। इनकी मित्रता फर्जी है... और हम कौवे हैं, हम भला गिद्ध कैसे बन सकते हैं? ये गिद्ध हमें मूर्ख बना रहे हैं..."
...पर युवक बुजुर्गों की बात सुनते कहाँ है! युवक कौवे अपने नाम के साथ गिद्ध जोड़ने लगे।
गिद्धों ने कौवों के मन में गौरैयों के लिए जहर भर दिया।
धीरे धीरे अनेक युवक कौवे स्वयं को गिद्ध कहने लगे, और समूचे जंगल में 'गौरैया मुर्दाबाद' के नारे लगने लगे।
गिद्ध अपनी योजना सफल होते देख कर बड़े प्रसन्न थे। जब भी कोई एक कौवा 'गौरैया मुर्दाबाद' के नारे लगाता, तो अनेक गिद्ध उसके समर्थन में खड़े हो जाते और वे भी 'गौरैया मुर्दाबाद' के नारे लगाते।
धीरे धीरे पक्षियों में फूट पड़ गयी। अब किसी गौरैया को कष्ट में देख कर कोई कौवा सहायता नहीं करता, और कौवों से गौरैये भी जलने लगे। मैना, तोता, बुलबुल, मोर, उल्लू, गौरैया सब एक दूसरे को अपना दुश्मन समझने लगे।
डंडों की गांठ खुल गयी थी।
एक दिन गिद्धों ने कौवों से कहा, "अब हमें आंदोलन करना चाहिए। गौरैयों ने युगों से हमारा शोषण किया है, हम यदि आंदोलन नहीं करेंगे तो यह शोषण नहीं रुकेगा। आंदोलन से ही हमें हमारा अधिकार मिलेगा।"
कौवे तैयार हो गए। उनके आंदोलन की दिन-दशा तय हो गयी।
अब कौवे तो आखिर कौवे ही थे। आंदोलन के दिन सुबह में ही उन्होंने पेड़ों की पत्तियां तोड़ी, फल बर्बाद किये, नारे लगाए....
पर दिन चढ़ते ही आंदोलन में गिद्ध आ घुसे। गिद्धों नें पक्षियों का घोंसला तोड़ना प्रारम्भ किया। वे छोटे पक्षियों को चबाने लगे, उनके पंख तोड़ने लगे...
जंगल में हर ओर हिंसा की आग लग गयी थी।
दिन भर भयानक तोड़फोड़ हुई। असंख्य पक्षी मारे गए। काम गिद्धों ने किया, नाम कौवों का हुआ...
पक्षियों में रही-सही एकता भी समाप्त हो गयी। सारे पक्षी एक दूसरे के दुश्मन हो गए।
अब गिद्धों के अच्छे दिन आ गए। उन्हें जब मन करता, किसी पक्षी को मार कर खा लेते। गौरैया के मरने पर कौवे चुप रह जाते, तो कौवों के मरने पर गौरैये ताली बजाते...
धीरे धीरे मूर्खिस्तान के जंगल मे केवल गिद्ध बच गए।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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