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भोजपुरी कहानिया

मुख्तार मियाँ की कबूतरबाजी

मुख्तार मियाँ की कबूतरबाजी
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आसमान में खूब ऊंचाई पर अगर कबूतर घंटों उड़ान भरते दिख जायें तो इलाके के कबूतरबाज़ बिना पूछे जान लेते थे कि यह मुख्तार मियाँ के वफादार हैं। भोपाल की तंग गलियों में मुख्तार मियाँ का नाम सबसे नामचीन कबूतरबाजों में मशहूर है। बचपन का शौक कब पेशे में बदल गया, मुख्तार मियाँ को खुद भी न पता।

जो भी लौंडे कबूतरबाजी के नशे में गिरफ्तार होते तो वह मुख्तार के छत पर ही नजर आते। मुख्तार के पांच मकान दूर जुबैर की छत भी गूंटर-गूं की आवाज़ से पहचानी जाती। जुबैर मियाँ यूँ तो पुराने कबूतरबाज़ थे लेकिन उनका कबूतरों पर इतना अख्तियार न था जितना मुख्तार का अपने परिन्दों पर.......

कबूतरबाज़ी के शौक में एक नियम यह भी है कि किसी का भी कबूतर दूसरे की छत पर बैठ गया तो समझो दूसरे का हुआ। मुख्तार अपने कबूतरों को इतना ट्रेन्ड करके रखते कि अगर कबूतर उनके छत से उड़ान भरता तो बीच में कहीं भी आराम नहीं करता और दिन ढलने के बाद तक भी वापसी होती लेकिन होती जरूर।

जुबैर के बहुतेरे कबूतर भटक कर मुख्तार के मुंडेर और छत पर बैठ जाते और फिर उनके मुख्तार होते मुख्तार मियाँ।

मुख्तार मियाँ के कबूतरों का दाम पूरे इलाके में सबसे ऊंचा लगता। अरे ! लगे भी न क्यूँ.. आखिर मियाँ मुख्तार के जो कबूतर ठहरे।
नये खरीदार कभी-कभी दाम सुनकर सहम जाते और कहते यही कबूतर तो जुबैर चचा के यहाँ आधे दाम पर मिल रहे हैं.......

मुख्तार यह सुनकर बिफर पड़ते और कहते- यही कबूतर ? क्या मजाक कर रहे हो मिंयाँ! मुख्तार के कबूतर जंगली कबूतर नहीं हैं कि माटी के मोल जायें। जुबैर क्या जाने कबूतरों की परवरिश..... उसके पास तो सब जंगली कबूतरों की फौज है।

एक दिन एक नये शिकारी कबूतरबाज़ ने मुख्तार मियाँ के कबूतरखाने में जुबैर के कबूतरों की पहचान कर ली और पूछा- चचा एही कबूतर, जो किनारे बैठा है एको जुबैर चचा डेढ़ सौ में देत रहे लेकिन आप तो सवा दो सौ बताय रहे हो। एतना दाम काहें चढ़ाये हो चच्चा? कल तक जब ये जुबैर चच्चा के दड़बे में था तो आप जंगली बता रहे थे पर दो ही दिन में आपके घर आकर उड़ाका कैसे बन गया?

मुख्तार मियाँ पहले तो संजीदा हुये फिर माथे का पसीना पोछकर बोले- बरखुरदार, कबूतर तो सब जंगली ही होते हैं लेकिन असल कमाल तो मुख्तार के नाम का है। जब कबूतर मुख्तार के हाथ लग गया तो उसके पंखों में खुद-ब-खुद जान आ जायेगी..... पूरी जिन्दगी इसी में गवांई है मुख्तार ने। जब यह जुबैर के छत पर से मेरे छत पर बैठ गया तो मान लो कि वह अपना जंगलीपन भी वहीं छोड़ आया। अरे मियाँ अब यह मेरे परवरिश में आ गया है तो जो थोड़ी- मोड़ी कसर होगी वह भी छूट जायेगी।

क्योंकि मुख्तार नाम ही काफ़ी है घंटों उड़ान भरने के लिये।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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