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भोजपुरी कहानिया

बुड़बक आख्यान ८ "महामिलन"

बुड़बक आख्यान ८  महामिलन
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कबूतर हो गया है अरविंद सिंह का मन, लगता है जैसे अभी उड़ के मनोरमा की छत पर बैठ जाएंगे। प्रेम के गड़े मुर्दों को उखाड़ने में यह फागुन का महीना चुनावकाल को भी मात देता है। साल के ग्यारह महीने तक मौन रहने वाला मनोरमा का मनमोहनी प्रेम फागुन में मोदी क्यों हो जाता है, इस विषय पर यदि जे एन यू में शोध हो तो बड़े आश्चर्यजनक परिणाम आएंगे। समाहरणालय के बड़े बाबू के टेबल पर घूस के भार से दबी हुई फाइलों की तरह ग्यारह महीने मनोरमा के प्रेम को हृदय में दबा कर रखते हैं बुड़बक बिहारी, पर फागुन की पहली हवा लगते हीं जाने किसकी पैरवी से ऊपर आ जाता है यह अभागा प्रेम। कभी कभी सोचते हैं अरविंद सिंह, कि क्या दिया इस प्रेम ने? सिर्फ दुःख और दर्द ही न! फिर क्यों ढो रहा है हृदय इसे? पर तभी हृदय के किसी कोने से प्रतिरोध का स्वर उभरता है, मुर्ख न बनों अरविंद सिंह, याद रखो-

प्रणय की राह तो निशदिन करोड़ों लांघते लेकिन,
अमर है प्रीत उस प्रेमी की, जिसने लात खायी है।
फिर अरविंद मन ही मन डूब जाते हैं मनोरमा के प्रेम में। फागुन हर साल उनको दीवाना बना देता है पर किसी तरह संभालते हैं वे स्वयं को।
एक ही शहर में पांच साल से रहने के बावजूद कभी मनोरमा के घर जाने की हिम्मत नही हुई अरविंद की, पर इस साल के फागुन ने जाने कैसी आग लगा दी थी कि अरविंद पन्द्रह दिन से मनोरमा के घर जाने का बहाना ढूंढ रहे थे। कहते हैं कि "खोजी को राम मिलते हैं", अरविंद को भी शायद कोई बहाना मिल गया था। उनके मन ने ठान लिया था कि अब मनोरमा से मिल कर ही दम लेंगे। इस परीक्षा में पास हुए तो ठीक है, और अगर फेल भी हुए तो कौन सी नई बात हो जायेगी। प्रेम में सर्वाधिक जूते खाने का रिकार्ड भी तो उन्होंने ही बनाया था।
शाम का समय था, अरविंद ने बाहर निकल आये अपने पेट को पैजामे की छोरी से कस कर बांध लिया और सीसे में देख कर मुस्कुराये। अब पेट तनिक कम दिख रहा था। उन्होंने अलमारी खोल कर अपना पसंदीदा सूट निकाला और पहन कर यूँ इतराये जैसे भोट देने जा रहे हों। बाहर निकल कर उन्होंने अपनी बुलेट निकाली और घण्टे भर के अंदर मनोरमा के दरवाजे पर थे। अरविंद ने अपने सरकारी सेवक के सामने खड़े आम आदमी की तरह कांपते हुए दरवाजे की घण्टी बजायी। आधे मिनट के बाद दरवाजा खुला तो सामने एक अभूतपूर्व किन्तु भूतपूर्व सुंदरी खड़ी थी। उसने अरविंद से पूछा- जी, कौन हैं आप, और किससे मिलना है आपको?
अरविंद आश्चर्यचकित हो कर बोले- हे देवी, तनिक स्मरण करें, मैं आपके चरण कमलों का चिर अनुरागी वही अरविंद सिंह उर्फ बुड़बक बिहारी हूँ, जिसने आपके अनुराग में निज-पिछवाड़े पर करोड़ो लट्ठ सहन किये हैं।
मनोरमा आश्चर्य से मुस्कुरा उठी। बोली- अरे वाह अरविंद जी, आज युगों बाद आपको देख कर तो मैं पहचान ही नही पायी। और सुनाइए कैसे हैं?
अरविंद- मैं सर्वदा आपके स्नेह की भिक्षा मांगता रहा देवी, किन्तु मेरे साथ भिक्षुक सा व्यवहार तो न करें। अपने हृदय में न सही, सोफे पर तो आसन दें। क्या निज गृह में प्रवेश भी न कराएंगी?
मनोरमा लजा गयी, तुरन्त अरविंद को ले कर आगन्तुक कक्ष में चहुँपी तथा जलपान का प्रबंध किया। अरबिन्द मिठाई दबाने लगे तो मनोरमा ने पूछा- तब अरविंद जी, आज कैसे याद आ गयी मेरी?
अरविंद बोले- हे देवी, आज मेरी कृषि वाटिका से इस सत्र का प्रथम भंटा निकला था। सो हमने सोचा कि उसे आपके चरणों में ही समर्पित करना उचित होगा। यह कहते हुए अरविंद ने मनोरमा को बाजार से ख़रीदा गया पौने डेढ़ किलो बैगन थमा दिया। मनोरमा जाने क्यों मुस्कुरा उठी। अरविंद फिर मिठाई दबाने लगे। लगभग पच्चीस तीस रसगुल्ले दबाने के बाद अरविंद बोले- हे रमा! मेरे दुर्भाग्य के दीर्घ कालखण्ड में क्या आपको कभी भी मेरा स्मरण न हुआ?
मनोरमा ने कोई जवाब नही दिया, पर उसकी आँखे भीग गयीं। अरविंद ने एक बार उन भीगी आँखों में देखा और बोले- आपके दृग-कोरकों की नमी प्रमाणित कर रही है कि आपका हृदय कभी भी मेरे स्नेह से रिक्त न रहा। किन्तु हा दुर्भाग्य! आपके स्नेह से अनभिज्ञ मैं नित्य अपनी अप्रिय अर्धांगिनी के चरण प्रहार सहन करने को ही अपनी नियति समझ बैठा। हे देवी, मेरे दुःख के निवारण का क्या कोई उपाय नहीं?
मनोरमा ने बात टालने के लिए कहा- छोड़िये अरविंद जी, याद हो तो कोई गीत सुनाइए। पहले तो आप बहुत सुंदर गाते थे।
अरविंद मुस्कुरा उठे। बोले- मेरे मधुर कंठ का अब भी स्मरण है आपको? अब तो मैं अवश्य गाऊंगा।
अरविंद ने अपने काग कंठ से "तुम्हारे होठों की सुर्खियों से" की तर्ज पर कढाया-
भले तुम्हारी चरणपादुका के चिन्ह मिट गये मेरे कपोल से
तुम्हीं बताओ हृदय पे अंकित तुम्हारे चित्र को कैसे मिटाऊं।
अरविंद के कर्कश स्वर से प्रभावित हो उछल पड़ी मनोरमा उनके निकट सरक आई थी। उसने अरविंद की आँखों में आँखें डाल कर कहा- आप तो अब भी उतना ही मीठा गाते हैं अरविंद!
अरविंद बोले- क्या सचमुच आपके हृदय में मेरे प्रेम का सोता बहता है रमा?
मनोरमा अरविंद के और नजदीक घसक आयी थी, बोली- अब यह क्या बताऊँ अरविंद जी, मैं तो एक आम मतदाता की तरह यह सोच कर हर बार आपके बक्से में अपना हॄदय डालती रही, कि आप मंदिर बनवाएंगे। आप हर बार भूल जाएं तो इसमें मेरा क्या दोष?
अरविंद और मनोरमा के बीच अब पूरे माईनस तीन सेंटीमीटर का फासला था। उनके अधर नितीश और लालू की तरह महागठबन्धन बना चुके थे। अरविंद बोले- स्मरण करो रमा! तुमने अपनी बाटा की पादुका से मेरे थुथुर पर कुल इकहत्तर प्रहार किया था।
रमा की बाहें अब अरविंद की गर्दन को कस चुकी थीं। वह मुस्कुरा कर बोली- आप भूल रहे हैं अरविंद जी, इकहत्तर सैंडल तो एडिडास की सैंडल से मारी थी। बाटा की सैंडल तो इक्यावन बार में ही टूट गयी थी।
अरविंद मुस्कुरा उठे। अब दोनों के अधर राहुल अखिलेश की तरह एक दूसरे को जकड़ चुके थे।
अचानक अरविंद की कमर पर कोई घातक प्रहार हुआ और उनकी कमर कराह उठी, और नींद खुल गयी। अरविंद ने देखा- हाथ में पहरुआ लिए खड़ी अर्धांगिनी गरज रही हैं- हरामखोर! अरे कौन सी आग है रे कि सोये सोये दो फिट दीवाल का सारा चुना चाट गया?बुढ़ापे में शर्म भी घोल के पी गये क्या?
अरविंद सारा माजरा समझ गए। बोले- क्षमा करो देवी! मैं स्वप्न में तुम्हारे चरण चाट रहा था।

(इस कथा की सत्यता के सारे प्रमाण सर्वश्री संजय अनेजा जी के पास सुरक्षित हैं।)

मोतीझील वाले बाबा।
वही.......😊😊
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