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भोजपुरी कहानिया

सुस्वागतम बसंत...

सुस्वागतम बसंत...
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मेरे लिए बसंत के पखवारे भर पहले खेतों में महक लिए फूल उठी सरसो ठीक वैसी ही है, जैसे सातवीं क्लास के किसी अल्हड़ किशोर के लिए कक्षा में आई कोई सुंदर किशोरी। सच कहूं तो इन दिनों विद्यार्थी जीवन के अनेक पवित्र आकर्षणों में बंध कर बहाए गये आंसुओं की लघुकथाएं उपन्यास बन कर अध्याय दर अध्याय खुलने लगती हैं। मैं तब भी पवित्र था, मैं अब भी पवित्र होता हूँ। मुझे लगता है कि मात्र आकर्षण मान कर नकार दी जाने वाली वह छोटी प्रेम कहानियां ही सबसे पवित्र कहानियां होती हैं। यह वह समय होता है, जब व्यक्ति पर प्रेम को पा लेने की चाह हावी नही होती, बल्कि किसी को मुस्कुराता देख लेने भर से ही लगता है कि वार्षिक परीक्षा में टॉप कर गए। अगर उसके बैग से कलम गिर जाय तो उसे लेकर बच्चा ऐसे दौड़ता है, जैसे हनुमान संजीवनी बूटी ले कर दौड़ रहे हों। और अगर कभी उसने अंग्रेजी की फेयर कॉपी मांग दी, फिर तो बच्चा बिल्कुल ही भूल जाता है, कि अगली ही घंटी में स्कूल के सबसे मरखाह शिक्षक को नाइरेशन सुनाना है, और "फर्स्ट पर्सन चेंज इनटू सब्जेक्ट" के आगे एक शब्द याद नहीं है। वह जीवन का सबसे पवित्र दौर होता है।इसी तरह वसंत भी वर्ष का सबसे पवित्र समय होता है, जब भावनाएं सबसे ज्यादा पवित्र होती हैं। यह सच्चे प्रेम का समय होता है, और किसी को प्रेम करते व्यक्ति के मन में कभी पाप नही होता।
भारत के इतिहास को पलट कर देखें तो हर्षवर्धन के बहुत बाद सातवीं आठवीं सताब्दी तक बड़ी धूम धाम से बसंतोत्सव मनाया जाता था, और तब अविवाहित युवक युवतियां स्वतंत्र होकर अपने पसंद का साथी चुनते थे। यह तत्कालीन समाज द्वारा प्रेम को दी गयी प्रतिष्ठा थी कि अभिभावक स्वयं अपने बच्चों को ऐसे उत्सवों में भाग लेने को प्रेरित करते थे। आठवीं सदी के बाद अरबी आक्रांताओं के द्वारा भारतीय युवतियों के साथ अभद्रता की बढ़ती घटनाओं ने एक तरफ तो वसंतोत्सव जैसी परंपराओं को समाप्त कर दिया, तो दूसरी तरफ लोगों को बालबिबाह जैसी असहज परंपराओं को जन्म देना पड़ा। स्त्रियों के लिए परदे का चलन और प्रेम का विरोध वस्तुतः भारतीय सभ्यता नहीं बल्कि अरबी संस्कृति है जो हमे मजबूरी में अपनानी पड़ी थी, अन्यथा वे हम ही हैं जिन्होंने दुनिया को प्रेम सिखाया था। भारतीय सभ्यता में स्त्रियों की बुरी दशा पर धार्मिक ग्रंथों का हवाला दे कर ज्ञान बघारने वालों से कहा जाय, कि सातवीं सदी के पूर्व लिखे गए किसी ग्रन्थ में ऐसा उदाहरण दिखाएँ, तो उन्हें ऐसा एक भी उदाहरण नही मिलेगा। ध्यान से देखें तो पाएंगे कि भारतीय परंपरा के प्रत्येक महापुरुष ने अपने जीवन में प्रेम किया था, और क्या खूब किया था। क्या पूरी दुनिया में कृष्ण से बड़ा कोई प्रेमी दिखाई भी देता है। दुनिया के इतिहास में राम के अतिरिक्त कोई अन्य एक भी उदाहरण ऐसा नही दीखता जिसने प्रेयसी तक पहुँचने के लिए समुद्र पर पूल बांधने जैसा दुस्साहसी कार्य किया हो। धर्मशास्त्र खंगालें तो शिव, विष्णु, सूर्य, इंद्रादि देवताओं की बड़ी सुंदर प्रेम कथाएं मिलती हैं। इसका प्रभाव प्राचीन संस्कृत साहित्य में भी खूब दीखता है। क्या धरती के इतिहास के किसी अन्य धर्म के देवता के लिए
"चन्दन चर्चित नील कलेवर पीत वसन बनमाली
केलिचलनमणिकुण्डलमण्डितगण्डयुगस्मितशाली" जैसे श्लोक वाले गीतगोविंद जैसे काव्य मिलेंगे? यह सनातन परंपरा ही थी, जिसमे शिव पार्वती की प्रेम कथा को ले कर "कुमारसंभवम" जैसे महाकाव्य लिखे गए।
बस्तुतः वह भारत ही है जिसने सर्वप्रथम प्रेम को साहित्यिक मान्यता दी थी। प्रेम को भी आध्यात्म का हिस्सा मान कर उसे जो पवित्र ऊँचाई भारत ने दी, उसकी बराबरी आज का स्वघोषित प्रगतिशील हिस्सा अब तक नही कर पाया। दुनिया की अन्य कथित सभ्यताएं और धर्म तो आज तक प्रेम को सच्चे अर्थों में स्वीकार नही कर पाए।
असल में दुनिया के लिए प्रेम देह का विषय है, पर हमारे लिए हृदय का।हमारे लिए प्रेम कृष्ण है जो राधा को त्याग कर चरम पर पहुँचता है। हमारे लिए प्रेम राम है, शिव है, राधा है, पार्वती है। हमारे लिए प्रेम अपने रंग में तब आता है जब तुलसी बाबा जैसा भक्त अपनी अराध्या माँ सीता और आराध्य पिता राम के प्रेम प्रसंग का खुल कर उन्मुक्त वर्णन करता है, और प्रेम अपने चरम पर तब पहुचता है जब सूरदास जैसा कोई महान भक्त कहता है- ऊधो, मन न भये दस बीस।
साहित्य के लिए कहते हैं कि यूरोप में मृत्यु जीतती है और भारत में प्रेम।
शायद यही कारण है कि ईश्वर ने बसंत के रूप में प्रेम की ऋतू सिर्फ भारतीय महाद्वीप को दी थी।
वही बसंत आ रहा है भाई, उठिये और अपनी बांहे खोल कर बसंत को गले लगाने के लिए तैयार होइये। यह हमारा समय है, यही भारत का समय है।

मोतीझील वाले बाबा
माघ कृष्णपक्ष त्रयोदशी,
संवत २०७३
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