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भोजपुरी कहानिया

बुद्धू - एक प्रेम कहानी

बुद्धू - एक प्रेम कहानी
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"रचित बाबू छुट्टी हो चुकी है, घर नहीं जाना है क्या?", मेरे एक साथी कर्मचारी ने हल्की मुस्कान के साथ मुझे नींद से जगाया। "अरे नहीं सर, वो थोड़ी आँख लग गई थी", मैंने झेंपते हुए कहा। मेरा लखनऊ से भोपाल तबादला हुआ था और आज यहाँ मेरी जॉइनिंग का पहला दिन था। लम्बा सफर तय करने की वजह से अभी मेरे शरीर की थकान पूरी तरह से मिटी नहीं थी। खैर, आज बैंक में पहला दिन साथी कर्मचारियों से परिचय में ही बीता था।

मैंने जल्दी-जल्दी अपना सामान समेटा और बैंक से घर के लिए निकल गया। अभी शाम के लगभग नौ बज रहे थे और भूख भी लग चुकी थी। अब मेरा घर जाकर खाना बनाने का बिल्कुल मन नहीं था इसीलिए वहीं आसपास कहीं एक ढ़ाबे पर खाना खाया और घर आकर कपड़े उतारकर इधर-उधर फेंक कर सो गया।

अगली सुबह जब नींद खुली तो देखा घड़ी में सुबह के दस बज रहे थे। गनीमत थी कि आज रविवार का दिन था मतलब काम से छुट्टी का दिन। उठकर जल्दी-जल्दी दैनिक क्रिया करने के पश्चात् काफी तेज भूख भी लग चुकी थी। मैंने जैसे-तैसे नाश्ता तैयार किया, आधा खाया और आधा वैसे ही प्लेट में छोड़ कर निकल गया इस अंजान शहर के अंजान सडकों पर। कुछ दूर यूँही टहलने के बाद मेरी नज़र एक किताब की दुकान पर खड़ी ग्राहकों की भीड़ पर पड़ी। मैं दूर से ही खड़ा एकटक दुकानदार और ग्राहकों की गतिविधियों को ध्यान से देखता रहा।
किताबों में डूबे रहना मेरी आदत थी या यूँ कह लीजिये किताबें पढ़ना मेरी कमजोरी थी...यही कारण था कि मैं न चाहते हुए भी उस दुकान की तरफ खिंचा चला आया। अब भीड़ भी काफी कम हो चुकी थी।
अपने काम में मशगूल दुकानदार की नज़र अचानक मुझ पर पड़ी। उसने मुझे देखते ही कहा, "बोलिये साहब, कौन सी किताब दे दूँ?"... मैं कुछ सोच कर तो गया नहीं था। तभी कुछ सोचने के बाद मेरी लड़खड़ाती ज़बान से अचानक ही निकल पड़ा, "रशीदी टिकट मिलेगी क्या?....कल अख़बार में किसी लेखक ने 'रशीदी टिकट' की समीक्षा की थी लेकिन मैं पढ़ नहीं पाया था।"
"आप बहुत भाग्यशाली हैं साहब, बस एक अंतिम पीस ही बची है".. दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा।
मैंने बटुए से पैसे निकालकर दुकान को दिया और जैसे ही पलटा तभी वहाँ एक लड़की आई....करीब पच्चीस वर्ष उम्र होगी उसकी। उसने भी दुकानदार से कहा, "भईया, रशीदी टिकट दे दीजिए"..
"माफ़ कीजिये मैडम, आखिरी पीस ही बची थी वो भी इन साहब ने अभी-अभी खरीद ली"।
उस लड़की ने पहले ललचायी नज़रों से मेरे हाथ में पड़ी किताब को बड़े ध्यान से देखा फिर उसने मुझे देखा...लेकिन कहा कुछ नहीं।
"कब तक दूसरी आ जायेगी?" उसने दुकानदार से पूछा।
"हफ्ते-दस दिन लग जायेंगे", दुकानदार ने कहा।
"अरे इतना लेट, थोड़ी जल्दी नहीं आ सकती क्या?"... उसने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा।
"माफ़ कीजिये मैडम लेकिन दस दिन से पहले नहीं ला पाऊंगा"..दुकानदार ने भी अपनी मजबूरी बताई।

मुझे इस किताब को पढ़ने की कोई दिली तमन्ना नहीं थी लिहाजा मैंने किताब को उस लड़की की तरफ बढ़ाते हुए कहा..."ये लो तुम पढ़ लो, मैं बाद में पढ़ लूंगा"
"आप मेरी वजह से ऐसा कर रहे हैं न?"...उसने कहा।
"नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, वैसे भी मैं इसे आज नहीं पढ़ता"।
उसने किताब लिया और अपने बैग में से पैसे निकालने लगी। मैंने उसे रोकते हुए कहा, अरे ये क्या कर रही हो तुम, किताब पढ़कर इसी दुकान पर वापिस कर देना, मैं इन दुकान वाले भईया से ले लूंगा।" दुकानदार ने भी सहमति में सिर हिलाया।
उसने मुझे शुक्रिया अदा किया और वहां से किताब लेकर चली गई। मुझे भी उसके मासूम चेहरे की मुस्कान देखकर प्रसन्नता हुई।

अगले दिन इत्तेफाक से उसी रास्ते में दोबरा मेरी मुलाकात उस लड़की से हुई। वो रिक्शे से थी लेकिन मुझे देखते ही रिक्शे से उतरकर मेरे साथ चलने लगी और मुझे किताब लौटाने लगी।
"अरे इतनी जल्दी खत्म कर दिया तुमने?"... मैंने चौंकते हुए पूछा।
"हाँ पढ़ लिया, दरसअल मैं इस किताब को पढ़ने के लिए बहुत बेचैन थी..पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता अधिक थी इस कारण पढ़ नहीं पा रही थी। कल संडे था, पूरा दिन पड़ा था मेरे पास इसलिए दो बैठक में ही खत्म हो गई किताब"... उसने बड़ी सहजता से जवाब दिया।
"लगता है किताबों में तुम्हारी खास दिलचस्पी है".. मैंने कहा।

"हाँ वो तो है, आपकी नहीं है?"

"मेरी भी है लेकिन शायद तुमसे कम" ...मैंने कहा तो वो मुस्कुरा दी।
फिर कुछ देर तक हम चुपचाप चलते रहे...मैंने चुप्पी तोड़ा, "उस किताब में ऐसा है क्या जो तुम इतना व्याकुल थी पढ़ने के लिए?"

"ये अमृता प्रीतम की आत्मकथा है इसमें उनके और साहिर लुधियानवी के प्रेम के बहुत ही संजीदा किस्से हैं, जिसे पढ़कर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं और हाँ...मैं इसे बहुत जल्द दोबारा पढ़ने वाली हूँ"

उसकी बातें सुनकर मेरी भौंहे चढ़ चुकी थी। मैंने कहा.... "शाबाश"

हम अब भी चल ही रहे थे बिना ये तय किये कि ही हमें जाना कहाँ है!!

"तुम संडे को कहीं घूमने नहीं जाती क्या?".. मैंने पूछा

"नहीं, मैं यहां नई आयी हूँ...यहां किसी से भी मेरी कोई जान पहचान नहीं है और कोई दोस्त भी नहीं है...अकेली कहाँ जाऊं घूमने?".... इस जवाब के साथ उसके चेहरे पर उदासी आ गई।

वो भी मेरी ही तरह इस शहर में नई और अकेली थी, अब मैं उसकी उदासी को समझ सकता था। किसी ने ठीक ही कहा है, "जब दो लोगों का दर्द एक जैसा हो, तो उनकी बातों में भी बहुत आत्मीयता होती है"।
अब चलते-चलते बहुत देर हो चुकी थी लेकिन हम अब तक एक दूसरे के नाम और काम से अपरिचित थे।

"चलिये न कहीं बैठकर आराम से बातें करते हैं"... उसने मुझसे आग्रह किया।
मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। वैसे मैं लड़कियों से दूर ही रहता था लेकिन पता नहीं क्यों वो मुझे अपनी तरफ खींच रही थी। मैं उसकी तरफ अब आकर्षित हो चला था।
हमें चलने के दौरान एक बड़ा सा कॉफी शॉप दिखा, हम जाकर उसमें बैठ गये। कॉफी आर्डर की गई... कॉफी आयी।
शॉप के अंदर का माहौल बिल्कुल बदल चुका था।
शायद ये शहर का सबसे बड़ा और महंगा कॉफी शॉप था। आधुनिक सुविधाओं से लैस। एसी की ठंडी हवा, आर्टिफीसियल ग्रीनरी के साथ हवा में कॉफी की खुश्बू... माहौल को रूमानी बनाने में चार चांद लगा रहे थे।
अब कॉफी के हर एक सिप के बाद बातें भी बढ़ने लगी।

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"वेदिका"

"ओह्ह नाइस'

"और आपका?"

"रचित"

"गुड नेम"

"तुम करती क्या हो? स्टूडेंट हो?"

"नहीं, प्राइवेट स्कूल में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर हूँ"

"वाव, फिर तो तुम इंटेलेक्चुअल हो"

"वैसे आप क्या करते हैं?"

"बैंक में असिस्टेंट मेनेजर हूँ"

"हम्म गुड, आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा"

"मुझे भी"

"तो क्या आज से दोस्ती पक्की?"

"बिल्कुल...नेकी और पूछ पूछ।"

बातों ही बातों में पता ही नहीं चला हम कितने कप कॉफी आर्डर कर चुके थे। अब तक मोबाइल नम्बर का भी आदान-प्रदान हो चुका था।
सच कहूं तो मुझे लोगों में सिर्फ धूर्तता, मक्कारी और चालाकी दिखती थी इसीलिए मैं लोगों से दूर ही रहता था और मेरे दोस्त भी गिने-चुने ही थे। लेकिन वेदिका में न जाने क्या था जो मुझे उसकी तरफ आकर्षित किये जा रहा था।
यही वजह थी कि उस दिन मैं बैंक भी नहीं जा पाया था और इसका मुझे कोई मलाल भी नहीं था।
खैर, मेरी बातों से उसे इतना तो पता चल ही चुका था कि मेरी और भगवान की आपस में बिल्कुल नहीं बनती क्योंकि मैं इन सब बातों को अंधविश्वास मानता था। लेकिन फिर भी उसने मुझसे अगले दिन चर्च चलने को कहा।
वो कहीं और जाने को कहती तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी चला जाता लेकिन सिर्फ उससे मिलने ले लिये मैं चर्च जाने के लिए तैयार हो गया।
तभी मुझे याद आया कि किताब तो उसी के पास रह गई। लेकिन फिर मुझे याद आया कि वो उस किताब को दोबारा पढ़ना चाहती थी इसलिए मैंने उससे किताब नहीं माँगा।

अगले दिन मिलने के तय समय से बीस मिनट पहले ही मैं चर्च के बाहर पहुँच कर उसका इंतज़ार करने लगा। जब तक वो आती तब तक मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया। अभी बमुश्किल मैंने चार-पांच कश ही लिये होंगे तब तक मुझे वो दूर सामने से आती दिखी।
अब धीरे-धीरे वो मेरे काफी करीब आ चुकी थी। मैंने उससे छिपा कर कहीं सिगरेट फेंक दिया।
अभी उसने मुझे देखकर हाथ हिलाया ही था कि बड़ी ज़ोर से किसी चीज़ के टकराने की आवाज़ आई। मेरा शरीर बिल्कुल सन्न और दिल की धड़कने जैसे बुलेट ट्रेन को मात दे रही थी। हमने देखा कि किसी कार ने एक चौदह-पंद्रह साल के लड़के को रौंद दिया था और डिवाइडर से टकरा गई थी। जब तक हम कुछ समझ पाते तब तक ड्राइवर गाड़ी छोड़कर भाग चुका था। घटनास्थल पर भीड़ इकठ्ठा हो चुकी थी लेकिन कोई भी आगे बढ़कर मदद के लिए नहीं आ रहा था। वेदिका उस लड़के के पास दौड़कर पहुँच गई। उसके सिर से खून निकल रहा था। तभी किसी भले आदमी ने अपनी गाड़ी में उस लड़के को लेटाया और पास के हॉस्पिटल में ले गया। पीछे-पीछे रिक्शे से हम दोनों भी आ चुके थे। वेदिका बहुत घबराई हुई थी। वो गाड़ी वाला अब जा चुका था। हमने डॉक्टर से बात की तो पता चला कि लड़का पास के ही अनाथाश्रम का है और अब खतरे से बाहर है। वेदिका ने मुझसे बटुआ मांगा मेरे बटुए से पैसे निकालकर डॉक्टर की फीस भरी। अब तक अनाथाश्रम में काम करने वाले लोग भी आ चुके थे। उन्होंने हमारा धन्यवाद किया। फिर हमने डॉक्टर को धन्यवाद कह कर वहाँ से विदा लिया।

अगले दिन किताब वापस करने वो मेरे घर आई। कमरे के अंदर घुसते ही उसने बुरा सा मुँह बनाया और कहा, "इतना गंदा उफ्फ...आप यहां कैसे रहते हैं रचित?"
फिर वो मेरे इधर-उधर फेंके कपड़ो, सिगरेट के जले हुए टुकड़ों और चूहों के दावत बन चुकेे किताबों को देखकर नाक भौंह सिकोड़ने लगी।
मुझे शर्म आ रही थी और उसके चेहरे के अजीबोगरीब हाव-भाव देखकर हंसी भी आ रही थी।

मैंने उसे बैठाया, पानी दिया और किचन में चाय बनाने चला गया। जब चाय लेकर वापस आया तो देखा वो मेरे किताबों को खूबसूरती से सजा चुकी थी और बाथरूम में मेरे कपड़ों को एक जगह इकठ्ठा करके उन्हें धोने की तैयारी कर रही थी।

"ये क्या कर रही हो, पागल हो गई हो क्या...मैं ये सब तुमसे कभी नहीं करा सकता" ... मैंने झटके से उसे वहां से हटाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानी। वो ज़िद पे अड़ी हुई थी और मेरे लाख मना करने पे भी नहीं मानी। आख़िरकार मुझे झुकना पड़ा। मुझे ये सब देखकर बहुत बुरा लग रहा था। वो कपड़ों को धोते हुए मुझसे बात भी कर रही थी और मैं उससे नज़रें मिलाये बिना उसका जवाब देता रहा।

"मैंने मेज पर किताब रख दिया है...पढ़ लीजियेगा"...जब वो जाने लगी तो उसने मुझे आगाह किया।

"हाँ, ठीक है"... मैंने कहा।

मैं उसे बाहर रिक्शे तक छोड़ कर आया और दूसरे कामों में लग गया। फिर मुझे किताब का ध्यान ही नहीं रहा। मैं ये भूल चुका था कि मैंने कोई किताब भी खरीदी थी।

अगले दिन मैंने उसे फ़ोन किया तो वो बार-बार मुझसे किताब पढ़ने को बोल रही थी। लेकिन मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था किताब पढ़ने को।
लेकिन फिर दो दिनों के बाद मैंने अनमने ढंग से किताब उठाया, कुछ पन्ने पलते और फिर जैसे ही किताब वापस रखा तभी उसके अंदर से एक कागज गिरा।
मैंने झुक कर उसे उठाया और उसे पढ़ने लगा। उसे पढ़कर मेरे रोंगटे खड़े हो गये, मैं उससे जिस बात को कहने से सिर्फ इसलिए डरता था कि कहीं उसे खो न दूँ....वही बात उस पन्ने पर वेदिका ने बड़ी बेबाकी से लिखा था।
हाँ, वो एक प्रेम पत्र था जिसमें वेदिका ने मुझसे अपने प्यार का इज़हार किया था। अब मुझे समझ में आया कि वो क्यों बार-बार मुझसे किताब पढ़वाना चाहती थी।

मैंने तुरंत उसे फ़ोन किया...

"हेलो वेदिका"

"क्या है?"

"कहाँ हो? मुझे तुमसे अभी मिलना है।"

"क्यों?"

"वेदिका मुझे माफ़ कर दो, मैंने बहुत देर कर दी उस किताब को पढ़ने में...आई लव यू वेदिका मैं भी तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ लेकिन कहने से डरता था"

"पता है आपको, सिर्फ आपके जवाब के इंतज़ार में मुझे रात में भी नींद नहीं आती थी... बहुत इंतज़ार कराया आपने रचित"

"तुम कहाँ हो मैं अभी आता हूँ"

"रेलवे स्टेशन पर हूँ, अपने मम्मी-पापा से मिलने जा रही हूँ"

"मुझे बिना बताए जा रही थी, अगर फोन नहीं करता तब तो चली ही जाती?"

"आप आ रहे हैं या मैं जाऊं?"

"बस अभी पहुँच रहा हूँ"

थोड़ी देर बाद मैं रेलवे स्टेशन पहुँच गया, वो वहीं उदास बैठी थी। मुझे देखते ही मेरे गले लग गई। मैं उसे उसके घर लाया।
फिर मैं अपने घर चला गया।
एक हफ्ते बाद उसने मुझसे बताया कि "मैंने पापा से आपके बारे में बात कर ली है..वो आपसे मिलना चाहते हैं।"
मैं तो इसी बात के लिये तैयार बैठा था।
दो दिन बाद हम दोनों एक साथ ही मम्मी-पापा के घर आये। मेरा खूब स्वागत हुआ। नाश्ता-पानी के बाद मैं वेदिका के पापा के साथ बैठ कर बातें कर रहा था और वो अंदर कमरे में अपनी मम्मी के साथ बैठी थी।

मेरे नाम और काम के बारे में वेदिका ने उन्हें पहले ही बता दिया था। अब हमारे बीच सिर्फ नॉर्मल बातें ही हो रही थी।
मैं उन्हें पसंद आया। वो हमारी शादी के लिए बिल्कुल राजी थे।

"रचित बेटा, मेरी बेटी की एक आदत बहुत बुरी है...वो बचपन ही से ही बहुत ज़िद्दी है।"

"हाँ अंकल, वो तो है।"

"क्या कहा आपने, ज़रा दोबारा कहिये तो".... वेदिका ने अंदर कमरे से ही कहा। उसकी बात सुनकर सभी लोग ज़ोर से हंसने लगे।

***************

अब हम दोनों वापस भोपाल आ चुके थे। अब हमारा एक दूसरे से मिलना-जुलना आम हो गया था।
एक दिन मैं उसके घर जा रहा था। बहुत ही सुहाना मौसम था। थोड़ी ही देर में बारिश होने वाली थी। जैसे ही मैं उसके घर के अंदर घुसा ठीक तभी बारिश शुरू हो गयी।
वेदिका घर से बाहर निकलकर बारिश में मजे से भींगने लगी और मैं कोने में खड़ा देखता रहा। उसको देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई मोर बारिश के उमंग में नाच रहा हो। भींगते हुए बिल्कुल जन्नत की परी लग रही थी वेदिका। उसने मुझे भी अपने साथ भिंगाने का प्रयास किया लेकिन अभी मेरे पास दूसरे कपड़े नहीं थे इसलिए मैं नहीं भीगा।

बारिश अब काफी कम हो चुकी थी। वेदिका बाथरूम में कपड़े बदलने चली गयी थी। और उसके बिस्तर पर लेटा मैं उसका इंतजार कर रहा था। वेदिका बाहर निकलकर आई और मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके गोद में सिर रखा और बातें करने लगे। थोड़ी देर तक बातें करने के बाद मैंने उसका चेहरा अपने करीब खींचा और कहा, "तुम टीचर हो न..मैंने फ्रेंच किस के बारे में बहुत सुना है चलो मुझे फ्रेंच किस करना सिखाओ।"
वो शर्मा कर दूसरी तरफ देखने लगी।
मैंने दोबारा कहा, "सिखाओ न।"
फिर वो अपने होंठ मेरे कान के पास लायी और उसने धीरे से कुछ कहा।

"हाँ, शायद बुद्धु कहा उसने।"

रितिक आर चौहान
बलिया
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