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भोजपुरी कहानिया

रेल यात्रा .....

रेल यात्रा .....
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लगभग दस वर्ष पहले की बात है... एक रेल यात्रा के दौरान मैंने रेल की पटरी के समानांतर दीवार पर, एक इश्तेहार पढ़ा कि "जोश अब हर रविवार " दरअसल उस वक्त दैनिक जागरण अखबार प्रत्येक सप्ताह बुद्धवार को अपना एक विशेषांक निकालता था "जोश"। "जोश" नाम से बुद्धवार को प्रकाशित यह विशेषांक पूर्णतः प्रतियोगी परीक्षार्थियों के लिये समर्पित होता था। देश के अन्दर निकलने वाली सरकारी/ गैरसरकारी भर्तियां, कोचिंग संस्थान, मोटिवेशनल लेख, शिक्षाविदों के मार्गदर्शन से समृद्ध वह विशेषांक युवाओं में खासा लोकप्रिय था। मैंने जब उस इश्तेहार को एक विद्यार्थी के तौर पर पढ़ा तो मुझे लगा कि दैनिक जागरण समूह द्वारा "जोश" का 'दिवस परिवर्तन' सम्बन्धी निर्णय उचित है। दरअसल रविवार का दिन हर लिहाज़ से मुफीद होता हैं। विशेषांक को पढ़ने के लिए छुट्टी का दिन, फैलकर तल्लीनता से पढ़ने के लिए माकूल रहता है। लेकिन जब ट्रेन आगे बढ़ी तो मैंने गौर किया कि यह "जोश" वाला इश्तिहार कुछ ज्यादा ही दीवारों पर कलमकारी करके बैठा है और कहीं भी दैनिक जागरण समूह का नाम भी नहीं है। ओह्ह! यह तो मेरे समझने का फेर था। दरअसल यह अखबारी जोश का विज्ञापन न होकर इंसानी जोश-खरोश का मामला था। मतलब यहाँ कोई हकीम साहब थे जो प्रत्येक रविवार बैटरी चार्ज करने आते थे। वैसे मैं अपनी नासमझी पर हँसा और तब जाकर समझा कि जब आपकी ट्रेन किसी शहर के करीब पहुंचती है तो उस शहर के वैद्य-हकीम कमजोर रेलयात्रियों के लिये जड़ी-बूटी हाथ में लेकर खड़े रहते हैं।

मुझे लगता है कि ज्योंही कोई व्यक्ति...रेल यात्री बनकर रेल में सवार होता है तभी उसके ऊपर मर्दाना कमजोरी हावी हो जाती है। क्योंकि... यदि ऐसा नहीं होता तो प्रत्येक शहरों के स्टेशनों पर पांच किलोमीटर पहले से वैद्य रहमानी/ सुलेमानी के बड़े बड़े इश्तेहार क्यों छपे होते। आखिर क्या माजरा है कि पूरे भारत में गुप्त रोगों के निदान हेतु सर्वाधिक विज्ञापन रेल यात्रियों के लिए परोसे जाते हैं। समझ में नहीं आता कि रेल, यात्रियों के लिये है या नपुसंको के लिये। मुझे तो लगता है कि रेल के भीतर विंडो सीट की डीमांड और उसके स्वामित्व के लिए मारपीट इसलिए होती है कि कमजोर रोगी झट से फोन नम्बर और पता नोट कर लें एवं विज्ञापन से जांच परख कर असली वाले हकीम की पहचान कर लें।
यदि आप हकीमों के क्लीनिक के पते पर गौर फरमाएं, तो आप पायेंगे कि सबसे अधिक हकीम आपको स्टेशन के इर्दगिर्द ही दिखेंगे। जैसे- स्टेशन वाली गली, फलाना होटल निकट रेलवे स्टेशन..... होटल फलां कमरा न० 110 स्टेशन रोड। मुझे तो डर है कि कहीं सारे हकीम 'रेल मंत्रालय' से यह दावा न ठोंक दें कि आपकी ट्रेन सर्वाधिक मर्दाना कमजोरी वाले मरीज ढोती है और रेल को एक बड़ा मुनाफा केवल ऐसे गुप्त रोगियों द्वारा रेल कोष में जमा राशि से होती है अत: हम वैद्य/हकीमों को भी इसका लाभांश मिले क्योंकि हम न होते तो कौन चढ़ता भला ट्रेन में!
जिन स्थानों पर रेल घंटों खड़ी रहती है उस जगहों और दीवारों पर चुन चुनकर ऐसे इश्तेहार लगाये जाते हैं। सामान्य व्यक्ति जब चारों तरह मर्दाना कमजोरी एवं गुप्त रोगों के निदान हेतु इतना प्रचार और जागरूकता देखता है तो उसे भी लगता है आज देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी नहीं बल्कि 'गुप्त रोग' है। कुछ युवा ऐसे भी हैं जो अपनी गुप्त प्रतिभाओं की दक्षता हेतु ऐसे कोर्स को अपना लेते हैं। दरअसल बहुत से लोग किसी रोग या कमजोरी से पीड़ित नहीं बल्कि दूसरे के डींगबाजी से मनोबल तोड़ बैठते हैं। उन्हें अपने परफारमेंस पर विश्वास कम एवं दूसरे की डींग पर अधिक होता है। कुछ लोग तूफानी प्रदर्शन के अभिलाषी होते होंगे इसलिए ऐसे ग्राहकों को भी रहमानी/सुलेमानी साहब अपने विज्ञापन जाल में फंसा ले जाते हैं। हो सकता है कि जब वह वापसी करके घर लौटें तो कुछ कर गुजरें।
ऐसे विज्ञापन रोगियों से सीधे संवाद करते हैं जैसे- " शर्माएं नहीं, हमें बताएं" " यदि आप हैं वर्षों से परेशान, तो चले आइए! हमारे पास है निदान"..."गुप्त रोगी निराश क्यो? ....पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे किसी प्लेन को आतंकवादियों ने हाईजैक कर लिया हो और बाद में रेस्क्यू फोर्स पूरी प्लेन को कब्जे में लेकर यह एलान करे कि " घबराएं नहीं! अब आप भारतीय सेना के हाथों में सुरक्षित हैं"
आप यह भी गौर करें! कि जितना गारंटी या शर्तिया इलाज का दावा यह हकीम करते हैं उतना कोई भी कम्पनी अपने उत्पाद पर नहीं दे सकती। गुप्त रोगों के जितने भी लक्षण इस धरती पर हो सकते हैं उसके विषय में इन हकीमों द्वारा पढ़ा या रटा दिया जाता है। एक सामान्य भारतीय अन्य रोग के लक्षणों को इतने विस्तृत तरीके से नहीं जानता होगा जितना गुप्त रोग के विषय में। आप चाहें तो खुद भी खुद से पूछकर जांच कर लें।
वैसे भारत वर्ष में सेक्स एजुकेशन को लेकर बहुत असहजता है इसलिए सेक्स शिक्षा का व्यवस्थित अध्ययन तो नहीं हो पाता लेकिन उसके पहले गुप्त रोग और कमजोरी पर इतनी चर्चा और चिंता का इश्तेहार छप जाता है कि अच्छा भला परीक्षार्थी संशय में पड़ जाये कि पहले परीक्षा केन्द्र पर पहुंचे कि रहमानी साहब से मिल लें।
दरअसल "गुप्त" एक इतना रहस्यमयी शब्द है कि किसी भी शब्द के आगे इसे जोड़ दीजिए पूरा रहस्य खड़ा हो जाता है जैसे- गुप्त ज्ञान, गुप्त सुरंग, गुप्त सीड़ियाँ, गुप्त तहखाने..... और जब रोग के सामने गुप्त लग जावे तो वह भी रहस्यमयी बन जाता है। लोग रोग में भी एक अलग तरह का रस ढूँढने लगते हैं।

वैसे यह विषय बहुत व्यापक है लेकिन मेरी लेखनी भी इस गुप्त लेखन में थोड़ा पर्दा कर रही है... खुलकर लिखने में संकोच कर रही है॥

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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