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भोजपुरी कहानिया

उस्ताद................( कहानी )

उस्ताद................( कहानी )
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खलील मियाँ पिछले तीस साल से सिलाई मशीन चला रहें हैं लेकिन जो नाम और पहचान उनको "उस्ताद" के वजह से मिली वह अपने सिलाई मशीन और हुनर से आज तक न मिल पायी। वैसे उनको भी जो भरोसा अपने चार साल के उस्ताद के हुनर पर है उतना उनको अपने खुद के हुनर पर नहीं। जागते भर मजाल है कि उस्ताद से नजर हट जाये खलील की, भले सिलाई इधर से उधर की राह पकड़ ले। वैसे खलील मियाँ उस्ताद पर एहसान भी नहीं करते, उस्ताद जितना खुराकी उठाते हैं उसका पांच गुना रोज का रोज चुका देते हैं। चार किलोमीटर के दायरे में कौन सी बकरियां हैं जिनकी गंध से उस्ताद रूबरू न हुए हों और जो उस्ताद के वजन से परिचित न हों। आस-पड़ोस के कौन से मेमने हैं जिनके जिस्म में उस्ताद न टहल रहे हों।
वैसे तो मुहल्ले में बहुत से बकरे मुफ़्त और बेहद रियायत में हाज़िर हैं पर न जाने उस्ताद में ऐसा क्या सुर्खाब का पर लगा है कि लोग अपनी बकरियां दो किलोमीटर से खींच कर खलील मिंयाँ के दरवाजे पर बांध देते हैं और खलील सिलाई छोड़कर उस्ताद की उस्तादी की व्यवस्था में मशग़ूल हो जाते।
उस्ताद का यह रिकार्ड रहा है कि जब से वह धंधे में उतरा है मजाल है कभी कोई ग्राहक घूम कर गया हो, खलील को इतना भरोसा है अपने उस्ताद पर कि हमेशा तीस रूपया प्रति बकरी बयाना उठाये लेकिन कभी पैसे को वापस नहीं करना पड़ा। खलील उस्ताद की खुराकी को लेकर बहुत फिक्रमंद रहते, पानी बरसे या आंधी आये लेकिन उस्ताद के लिये सुबह पत्ता न आये ये भला हो सकता है क्या ? भूसा चोकर खली हमेशा उस्ताद के कटोरे में भरा ही मिलता।
मुहल्ले में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके धंधे में उस्ताद रोड़ा बने थे और उनकी आंखों में उस्ताद और खलील किरकिरी थे। एक दिन ज़फर मियाँ बड़े सुबह ही खलील के दरवाजे पर दस्तक दिये और दीन-दुनिया की बात से टहलते-टहलाते उस्ताद पर आ गये और बोले- 'क्या मियाँ अच्छी खासी दुकानदारी उस्ताद के चक्कर में गवांये जा रहे हो। हुनरमंद हो, उस्ताद का चक्कर छोड़कर दिल लगाकर काम करते तो अच्छा पैसा कमाते लेकिन तुम तो उस्ताद की उस्तादी में तबाह हो। अरे बेच-बाच कर तसल्ली से दुकान चलाओ'।
इतने पर खलील तमतमा गये और सिलाई छोड़कर ज़फर से बोले- 'तू क्या समझ रहे हो कि हम उस्ताद के कमाई के नाते उस्ताद के पीछे-पीछे घूमते हैं? देखो ज़फर मियां ! मेरा उस्ताद आज इलाके का उस्ताद है तो वह सिर्फ उसकी काबिलियत नहीं है उसके खुराकी और परवरिश पर जी-जान से जुटे रहते हैं हम और हाँ हमें मालूम है कि तुमरा कलेजा काहें जल रहा है तुमरे बकरे को कोई पांच रूपये में भी नहीं पूछता, यहाँ तक की तुमरी चच्ची की बकरी भी मेरे उस्ताद की मुरीद है।
ज़फर आधी बात पर ही खटिया छोड़कर मुंह फेर उस्ताद को घूरते चलते बने लेकिन वाकये के पांचवें दिन ही खलील के घर कोहराम मच गया...... उस्ताद अपने खूंटे से नदारद, मल-मूत्र की मात्रा के आधार पर खलील ने अनुमान लगाया कि आधी रात से ही लापता है उस्ताद। वैसे ऐसा नहीं था कि आज उस्ताद पहली बार नदारद हुए लेकिन जाने क्यूं आज की गुमशुदगी ने खलील की धड़कने बढ़ा दी थीं। रह-रह कर ज़फर की बातें खलील का दिल बैठाये जा रहीं थी। खलील अपने कुनबे के साथ पूरे गांव का ज़र्रा-ज़र्रा छान मारे जिस घर पर जरा सा शक हुआ बेधड़क घुसकर तसल्ली किये। चार घंटे में ज़फर से तीन बार हाथापाई हुई लेकिन ज़फर हर बार एक सिरे से नकार गये। शाम तक केवल हाथ लगी तो मायूसी और नाकामी, रात न चूल्हा जला और न ही खलील भी एक निवाला तोड़े।

पूरे हफ्ते खलील की सिलाई मशीन आराम करती रही और खलील खटिया पकड़ कर उस्ताद की राह जोहते रहे। लेकिन वक्त के मरहम ने चूल्हा भी जलवाया और निवाले भी तुड़वाये पर खलील मियाँ के चेहरे की मुस्कान उस्ताद अपने साथ ले जा चुका था। उस्ताद का खाने वाला कटोरा अभी भी उस्ताद के खूंटे के पास ही रखा था।

एक दिन भरी दोपहरी में खलील खटिये पर ऊंघ रहे थे कि तभी आवाज आयी- 'बड़के अब्बा! उस्ताद मिल गया......' खलील एक सेकंड में खाट से उछल कर खड़े हो गये। अरे !कहां है उस्ताद....?
'बड़के अब्बा चगेंरी गांव के उस्मान अली के से घर उस्ताद की खबर आयी है'।
चंगेरी गांव मतलब खलील के गांव के पूरब छह किलोमीटर दूर, बात समझते ही खलील की साइकिल खड़खड़ाने लगी और लुंगी उड़ाते खलील पैडल पर जान झोंक दिये, भतीजे जुनैद ने भी दौड़ कर कैरियर पर तशरीफ़ टिका दिया। तीस मिनट के अन्दर खलील उस्मान के दरवाजे पर आ पहुंचे.....उस्मान के बाहरी बरामदे में उस्ताद चुपचाप खड़े थे। पेट एकदम खाली, पहली बार उस्ताद की हड्डियां दिखीं। खलील को देखते ही उस्ताद की पूंछ अपने आप हिलने लगी, उस्ताद अपने दोनों पैरों पर खड़ा होकर रस्सी की गोलाई में नाचने लगा। खलील का सारा गुस्सा उस्ताद को देखते ही काफूर हो गया, खलील बिना कुछ कहे उस्ताद को सहलाने लगे तभी उस्मान की बेगम बरामदे में हाज़िर हुईं और घुसते ही सारा माजरा समझ गयीं। लेकिन उस्मान की बीबी को देखकर खलील चीख कर पूछे कि- 'इ तुमरे पास कैसे आया '?

'अरे मोल खरीदें हैं पांच हजार का और कैसे आया? तुम क्या समझ रहे हो कि सेंधमारी करके लाये हैं ?

'किस मरदूद से खरीदा'? खलील फिर गुर्राए...
पिछले हफ्ते दो लड़के गांव में बेचने आये थे इसको, हमें पसंद आया तो मोलभाव करके खरीद लिया', उस्मान की बेगम बोलीं।

'इ हमरा उस्ताद है इसे कोई चोर चुरा कर ले गया हमरे दरवाजे से और यहाँ बेचकर चलता बना', खलील बोले।

'इ बात सही है कि इ तोहार उस्ताद है लेकिन एकरे मथ्थे पर तो नहीं न लिखा कि इ तुमरे उस्ताद हैं', उस्मान की बेगम ने कहा

'जो भी हो इसको हमको वापस करना पड़ेगा। बेशक तुम अपना पैसा ले लो मुझसे....'

'अरे ले जाओ भैया.... एक हफ्ते से एक दाना न उठाये तूरे उस्ताद, मुहल्ले की आठ दस बकरियां आयीं तो उन्हें पलट कर देखे भी नहीं, बड़ी बेइज्जती कराई तुमरे लाडले ने।'

उस्ताद की मुहब्बत पर मियाँ खलील जज्बाती हो गये एकदम से आंख भर आयी उनकी।
वाह उस्ताद एक हफ्ते भूखे रहे हमरी मुहब्बत में और हम दो जून भी न सब्र कर पाये अरे हम तो समझत रहे कि तुम केवल कुनबापरस्ती में ही उस्ताद हो लेकिन मुहब्बत के खेल में भी तुम उस्ताद निकले।
और फिर खलील एक घंटे में पैसे का इंतेज़ाम करके उस्ताद को अपने साथ कर लिये। पूरे राह पर केवल दो ही उछल रहे थे एक खलील और दूसरे उनके उस्ताद। कभी खलील आगे निकलते कभी उस्ताद, कभी उस्ताद की सींग में खलील की लुंगी अड़ जाती कभी उस्ताद अपने खुर से खलील के सीने तक चढ़ जाते। दो कोस का लंबा रास्ता उस्ताद को निहारने और पुचकारने में कैसे कट गया खलील को इल्म भी न हुआ।
एक हफ्ते गुमशुदी के बाद फिर खलील मियाँ के घर उस्ताद और रौनक दोनों लौट आयी........

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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