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भोजपुरी कहानिया

साहित्यिक मर्यादा कैसे याद रखूं?

साहित्यिक मर्यादा कैसे याद रखूं?
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मुझ पर सदैव एक प्रश्न खड़ा किया जाता है, कि आक्रोश में मैं साहित्यिक मर्यादा भूल जाता हूँ। मैं न्यायपालिका का सम्मान नहीं करता। बात गलत नहीं है, पर मैं समझ नहीं पाता कि न्यायपालिका का सम्मान कैसे करूँ। जो न्यायालय साठ लोगों को जिंदा जला देने वाले अपराधियों की फांसी की सजा रोक देता है, उसके सम्बन्ध में सोचते समय साहित्यिक मर्यादा कैसे याद रखूं?
एक महीना पहले ही पांच लाख कश्मीरियों का केस सुनने से भी मना कर देने वाला न्यायालय जब रोहिंग्या आतंकवादियों के मुद्दे को मानवता का मुद्दा बताता है, तब भी मैं नहीं चाहता कि असभ्य शब्दों का प्रयोग करूँ, पर मेरी कलम न्याय को नपुंसक लिख देती है तो मैं क्या करूँ। मैं कलम को कैसे बताऊं कि कश्मीरी हिंदुओं का मानवाधिकार नहीं होता, वह सिर्फ रोहिंग्या मुसलमानों का होता है। उनकी तड़प तड़प नहीं है, उनकी पीड़ा पीड़ा नहीं है। जिस जम्मू में रोहिंग्या शरणार्थियों को वर्ष भर में ही कच्चे मकान मिल गए हैं, उसी जम्मू में कैम्प के अंदर पच्चीस वर्षों से आठ फुट गुने आठ फुट के स्थान को चादर से घेर कर रहने वाले कश्मीरियों का मुद्दा यदि न्यायालय को मानवता का मुद्दा नहीं लगता तो उस न्यायालय का मैं कैसे सम्मान करूँ?
एक लड़की के बलात्कार के बार क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर हत्या करने वाले अफरोज को दो वर्ष में ही मुक्त कर देने वाला न्यायालय जब अल्पवयस्क पत्नी से सम्बन्धों को बलात्कार कहता है, तो मुझे न्याय हिजड़ा लगता है। अपने शब्दों पर मुझे स्वयं लज्जा आती है, पर ऐसे नौटंकीबाज न्यायालय के लिए मुझे सभ्य शब्द नहीं मिलते। मैं सोच कर रह जाता हूँ कि आखिर ये निर्लज्ज न्यायधीश के आसन पर बैठ कर बोल कैसे लेते हैं।
दीवाली पर पटाखा बैन के बाद उपजे जनाक्रोश पर न्यायालय कहता है कि हम आहत हैं। पूरे राष्ट्र को नित्य ही आहत करने वाला न्यायालय यदि छोटे से विरोध पर आहत होने का अभिनय करता है, तो उसके लिए मेरे अंदर कोई संवेदना नहीं। उसके अभिनय पर मैं ताली नहीं बजा सकता।
जो संस्था इतनी निरंकुश और सामन्तवादी है, कि उसके ऊपर प्रश्न उठाने, या उसे कठघरे में खड़ा करने का अधिकार भी नहीं किसी के पास, उसका सम्मान कैसे करूँ मैं?
जिन नेताओं को हम सदैव बुरा कहते हैं, उन्हें भी जनता और न्यायालय का भय है, और अपराध करने पर उन्हें भी दंड मिलता है। मुझे समझ मे नहीं आता कि न्यायपालिका को यह सामंती अधिकार कैसे मिल गया कि किसी न्यायधीश को दंड का भय ही नहीं होता। वह जानता है कि यदि वह किसी निर्दोष को फांसी भी दे दे तो अधिक से अधिक उसके निर्णय बदल दिए जाएंगे, पर उसकी सेवा, उसकी पद-प्रतिष्ठा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। दस वर्षों तक क़ैद भुगतने के बाद भी किसी निर्दोष के पास यह अधिकार नहीं कि वह उनपर उंगली भी उठा सके।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा सामन्तवादी व्यवहार करने वाली संस्था का सम्मान और कोई करे, पर मेरे अंदर का साहित्यकार उसका सम्मान नहीं कर सकता।
मेरे शब्द साहित्य के नियमों का उलंघन कर भले अपराधी सिद्ध हो जाएं, पर न्यायालय के लिए सम्मानजनक शब्द ढूंढ कर मैं अपने अंदर के आम आदमी को चोट नहीं पहुँचा सकता।
आप मेरी आलोचना के लिए स्वतंत्र हैं, मैं आलोचना का भी सम्मान करूँगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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