"ब्रह्महत्या"
BY Anonymous17 Sep 2017 7:55 AM GMT
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Anonymous17 Sep 2017 7:55 AM GMT
कहते हैं तब ऊपर में अंग्रेजो का शासन हुआ करता था और नीचे में हेतम सिंह का।
कुछ ईश्वर की कृपा, कुछ पूर्वजो की कृपा एवं कुछ
अंग्रेजो की कृपा, हेतम सिंह जमींदार थे।
दूर-दूर तक प्रसिद्धि थी अमीरी की, रौब की, रईसी की, अंग्रेजो से संबंध की।
नौकर-चाकर, लोग-बाग, अन्न-खाद्यान्न, खेत-खलिहान भरे पड़े थे हेतम सिंह के शान में।
वैसे तो हेतम सिंह 'रतनपुर' के थे पर उनकी जमीनें, उनके लोग दूर-दूर के गांवों तक थे।
हज़ारों बीघे खेत के मालिक थे तब जमींदार हेतम सिंह, भले नजर की सीमा खत्म हो जाये पर उनके खेतो की सीमा न खत्म दिखती।
विलासिता धन-संपति के समानुपाती होता है....!
विरले विरले ही हुये हैं जिन्होंने धन को धर्म-सद्कर्म से जोड़ा है वरना सदियों से धन की पहचान ही बाहुबल और विलासिता से रही है ।
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'रतनपुर' से करीबन 10 कोस की दूरी पर एक गांव था 'पीहर' !
हेतम सिंह अपनी जमींदारी के मार्फ़त पीहर पहुँचे हुये थे।
अंग्रेजो के पसंदीदा नुमाइंदे थे तो कर का समुचित प्रबंधन और कर का संग्रहण भी इनके हैं जिम्मे था।
इसी क्रम में इनकी मुलाकात एक स्त्री से हुई जो विधवा थी शायद... हाँ उसके कपड़ों से तो यही प्रतीत हो रहा था।
"वो अब रहे नहीं , देवर को भेज रखा है बनारस अच्छी शिक्षा ग्रहण करने को, घर मे कोई मर्द नहीं, एक बूढ़ी माँ जी है...सब काम मुझ अबला अकेले को ही तो करना है....पटीदारों की नज़र जमीन ज़ायदाद से लेकर मुझ पर तक है...कहते हैं जिसका कोई नही होता उसके भगवान होते हैं पर ये असत्य है...जिसका कोई नहीं होता उसके भगवान तो क्या शैतान तक नहीं होते...हाँ होती हैं तो वो लालची नजरें जो सबकुछ हड़प लेना चाहती हैं...
खेतों से उपज कदाचित कारणों से हो नहीं पाई है,पेट पालने को लाले पड़े हैं, देवर को भी पढ़ाना है...लगान कैसे जमा करती...?"
वो एक सांस में सब कुछ कह गई !
करुणा - लाचारी की मिश्रित आवाज थी यह।
तभी एक बिगड़ैल पवन के झोंके ने उस स्त्री के घूँघट को गिरा दिया एक पल को, हेतम सिंह की नजर पड़ी उस औरत पर।
उनकी नजर एकबारगी ठहर सी गई उस रूपसी स्त्री पर।
अब हेतम सिंह सबकुछ जान लेना चाहते थे उस स्त्री के बारे में ।
सच कहें तो रीझ गये थे इस सौदर्य पर।
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यह विधवा स्त्री 'सुशीला' थी जो एक जवान विधवा ब्राह्मणी थी ।
पति के विवाह के उपरांत ही असमय मृत्यु हो गई थी, एक 'देवर' श्रीचरण थे जो अभी किशोरावस्था में थे...दिवंगत पति के इक्षानुरूप श्रीचरण को संस्कृत में आचार्य बनने के लिये बनारस भेजा था सुशीला ने। सुशीला के अलावे घर मे बूढ़ी सास थी, जमीन जायदाद के नाम पर कुल 12 बीघे खेत थे, यहीं जीविका का एकमात्र श्रोत था इस अभागे परिवार का।
धीरे धीरे हेतम सिंह का पीहर गांव में आना जाना बढ़ चुका था एवं बढ़ चुकी थी सुशीला के परिवार पर कृपा भी।
इस कृपा स्वरूप लगान देने से भी मुक्ति मिल गई सुशीला को और आर्थिक मदद भी मिल जाती जमींदार से, अब सुशीला आश्रित सी हो गई थी हेतम सिंह पर।
कौन जाने ये जमींदारी का रौब था या जरूरत की मार या हेतम सिंह का चक्रव्यूह ...सुशीला फँस चुकी थी।
और वहीं हुआ जिसे दुनिया पीठ पीछे नजायज कहती है।
अब हेतम सिंह का अधिकतर समय पीहर गांव में सुशीला के घर ही व्यतीत होने लगा।
अब सबकुछ तो हेतम सिंह का ही था ...जायदाद से लेकर सुशीला तक, खेतों को भी अपने नाम करा लिया जमींदार बाबू ने।
पीठ पीछे लोग तरह तरह के बातें करते इस सबंध के बारे में पर जमींदार के सामने किसी की हिम्मत न थी।
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इधर श्रीचरण अचानक से घर आने की योजना बना चल दिये पीहर को।
जेठ का महीना था दोपहरी अस्त हो चली थी पर ताव अभी भी था ।
घर के अंदर घुसते ही श्रीचरण आवाक से रह गये!
उनकी भाभी जमींदार हेतम सिंह के साथ समागम थी, सहसा उनको विश्वास ही न हुआ पर यहीं सत्य था।
क्रोध एवं घृणा से कांपने लगे श्रीचरण लेकिन कर भी क्या सकते थे...
श्रीचरण बोल उठे...
"जमींदार बाबू ये सत्य है कि मैं आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकता परंतु आपने हमारे घर की इज्जत का नाश किया है, आपको दंड जरूर दूंगा...और जो मेरे खेत हैं उसमें जो भी कदम रखने की कोशिश करेगा नाश होगा उसका... आपकी पीढ़ियों तक पीछा न छोड़ेगा ये ब्राह्मण...नाश कर दूंगा ।
और भाभी मुझे नहीं पता आपने अपनी इक्षा या छल से खुद को पतित किया है पर ये अन्याय है...जो भी हो आपको मैं दंड नही दे सकता भाभी क्योंकि मेरे भैया का अनुराग था आपमे ..."
श्रीचरण क्रोध में रोते हुये कमरे से बाहर निकल चुके थे ।
और कुछ ही पल में इन सबको गंभीर दंड देने हेतु श्रीचरण खुद को बरगद के पेड़ पर लटका चुके थे ।
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कुछ समय पश्चात सुशीला दर दर की ठोकर खाने को मजबूर हो गई, वो सबकुछ खो चुकी थी....न खेत बचे थे न परिवार और न मदद करने को अब वो जमींदार ही थे।
उधर दिनों दिन हेतम सिंह की स्थिति कमजोर होती गई, कहते हैं रोज उन्हें कोई परेशान करता था, बड़ी ही दर्दनाक मृत्यु हुई थी। पीढ़ी दर पीढ़ी कष्ट अब कुछ कम जरूर हुआ है पर भुगत अब भी रहे हैं।
वो 12 बीघे का खेत शापित हो चुका है, कोशिश कइयों ने की कब्जा जमाने की पर समूल नाश हो गया।
शायद 'ब्रह्महत्या' लग चुकी थी......
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संदीप तिवारी 'अनगढ़'
"आरा"
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