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आज बिहार के गाँवों का स्वर यही है

आज बिहार के गाँवों का स्वर यही है
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(सच कहूं तो यह वो पोस्ट है जिसे लिखते समय मुझे शर्म आ रही है। आप मुझे स्वार्थी, अमानवीय, असंवेदनशील कह सकते हैं, पर सच यह है कि आज बिहार के गाँवों का स्वर यही है।)

इस भीड़ को देख कर कल से बाजार में संवेदनाओ की बाढ़ आई हुई है। सब डूब उतरा रहे हैं। पर एक सच यह भी है कि बाढ़ नदियों की हो चाहे संवेदना की, डूबते हर बार हम ही हैं। हर बार बिहार ही डूबता है।

अपने आरामदायक कमरे में बैठ कर लंबे लेख लिखने वाले इस भीड़ को अपने मुहल्ले में घुसने भी नहीं देंगे। संक्रमण का आतंक ले कर यह कातिल भीड़ हमारे ही गाँवों में आएगी, कोरोना की मिठाई हमारे ही टोलों में बंटेगी।

गैर बिहारियों को अटपटी लगेगी यह बात, पर सौ फीसदी सत्य है कि बिहार के गाँवों में अब दोगुनी मजदूरी पर भी मजदूर नहीं मिलते। सब शहरों की ओर निकल गए हैं... गाँव में 400 रुपये की दिहाड़ी पर काम करने वाले लोग नहीं मिलते, वे लोग दिल्ली जैसे शहरों में तीन सौ रुपये की दिहाड़ी पर खटने के लिए सुबह से ही चौराहों पर खड़े होने चले गए हैं।

जानते हैं क्यों? ताकि दो वर्ष पर जब गाँव लौटें तो पड़ोसियों पर रोब गांठ सकें कि हम दिल्ली में रहते हैं। हमें तो एसी में सोने की आदत है... मोदी जी तो रोज हमारे सामने से गुजरते हैं...

"गांव में रह कर यदि मजदूरी करेंगे तो रोब कैसे बचेगा? इससे अच्छा है कि दूर देश में निकल जाओ, कुछ भी करो कोई देखेगा नहीं।" यह भीड़ उसी मानसिकता वाले लोगों की है।

पलायन कुछ लोगों के लिए मजबूरी नहीं शौक है। यदि कोई बिहार का व्यक्ति दिल्ली जा कर 40 हजार की नौकरी करे तो उसका पलायन समझ में आता है। लेकिन 400 की दिहाड़ी के लिए पत्नी और पाँच बच्चों को साथ लेकर शहर की ओर निकल जाना समझ में नहीं आता। जो मजदूरी आपको इतना भी पैसा नहीं देती कि काम छूट जाने के बाद चार दिन बैठ कर खा सको, क्या मतलब है उस मजदूरी का? इससे अच्छा तो लोग गाँव में कमा लेते हैं। बन्दी गाँव में भी है, पर कोई भूखों नहीं मर रहा। गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी इतना है कि महीनों तक जी लेगा। लेकिन यह भीड़...

यह उन कायरों की भीड़ है, जो न अपनी मातृभूमि के हुए न कर्मभूमि के। केवल केजरीवाल को दोष न दीजिये। वह भी चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि हम व्यवस्था कर रहे हैं। पक्ष विपक्ष के सारे नेता,अधिकारी कह रहे हैं कि रुक जाइये, हम व्यवस्था कर रहे हैं। पर यह भीड़ किसी की नहीं सुनती, यह भीड़ किसी की नहीं सुनेगी... ऐसी ही एक भीड़ हमारे गाँवों में भी है जो बन्दी के बाद भी सड़कों पर मजे लेने के लिए रोज निकल रही है। हर गाँव में... भारत में एक बड़ी भीड़ है जो न सरकारों की सुनती है, न समाज की... इन्हें न देश से मतलब है न लोगों से... ये अपनी ही करेंगे। देश जलता है तो जले, कोरोना फैलता है तो फैले... इन्हें कोई मतलब नहीं।

सुना है कि कल बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि इन्हें बिना जाँच के गाँवों में नहीं जाने देंगे, बाहर ही आइसोलेशन सेंटर बना कर रखेंगे। मुख्यमंत्री कितना कर पाएंगे यह तो नहीं जानता, पर यदि सचमुच वे इन रक्तबीजों को रोक पाते हैं तो यह बहुत बड़ा और अच्छा कदम होगा। कोरोना दौर में उनके घोर निकम्मेपन के बाद भी मैं उनके इस निर्णय के साथ हूँ।

बिहार की दशा यूँ भी देश में सबसे बुरी है। स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर हमारे पास सन्नाटा है। दिल्ली से चली यह संक्रमण की फौज यदि गाँवों में छितरा गयी तो बिहार की रक्षा कोई नहीं कर पायेगा... कोई भी नहीं।

मुख्यमंत्री जी! रक्षा करिए हमारी! रोकिए इस आतंकी भीड़ को... आप यदि इनको रोक सके, तो हम इसीको आपका सबसे बड़ा योगदान समझ कर खुश हो लेंगे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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