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कुंवर की धरमन ...An Unsung Saga

कुंवर की धरमन ...An Unsung Saga
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कचहरी की दीवारों पे मुहब्बत रंग गई थी फिर से...और इस बार तो गुलाबी अबीर का साथ भी था... पर ये क्या... मुहब्बत तो करुण हुए जा रही थी...रूंधे स्वर में आज श्रृंगार कम व्यथा ज्यादा थी...शायद गुलामी की व्यथा ।

सन 1857!

होली के रासरंग में सरोबार आरा की कचहरी...फिजा में तैरती रंगरसियों की आह- वाह...संगीत पे थिरकते दो जोड़े घुंघरू...और घुंघरू को अपनी तान पे संतुलित करती दो रूपसी बहनें धरमन बाई और करमन बाई ... मानों इंद्रलोक की अप्सराएं उतर आई हो आरा के इस गंधर्व आंगन में ।

वैसे तो समुच्चय महफ़िल की आंखे टिकी थीं इन बहनों के रूप लावण्य पर, लेकिन उनकी आंखें तो किसी और को ही ढूंढ रही थी....वो थे जगदीशपुर के रियासतदार कुंवर सिंह !

कुंवर सिंह पधार चुके थे....।

महफ़िल शुरू तो हुई पर हरबार की तरह इसबार श्रृंगार की मादकता नहीं...गुलामी की वेदना फुट पड़ी ..

"सांस पे पहारा देबे दुश्मन विदेशिया

रोवे ली धरती माई, देखी दुर्गतिया..."

गीत के बोल और उन बहनों की करुण आवाज ने कुंवर सिंह को अंदर तलक झकझोर दिया ।

और सच ही तो था...यह भोग विलासिता का वक्त कहां था... शौर्य काल मे वीरों को वीरता शोभा देती है....श्रृंगार नहीं...प्रेम नहीं...विलासिता नहीं... आखिर फिरंगियों से मुक्त कौन कराएगा अपनी माटी को....थाती वाला छाती कब तक पीटे ?

धरमन बाई अपने मकसद में कामयाब हो चली थी ...एक एक शब्द तीक्ष्ण बाड़ों की तरह कुंवर सिंह की छाती पे वार कर रहे थे...बेचैन हो उठे वो और भावावेश में आकर धरमन बाई की कलाई पकड़ ली ।

संगीत थम चुका था...महफ़िल शांत हो गई थी और श्रृंगार शौर्य में विलीन होने को आतुर था ।

धरमन बाई भले ही नाचने गाने वाली थी पर आजतक उसकी कलाई न पकड़ पाया था कोई...धरमन ने अपना घूंघट काढ़ लिया और कुंवर सिंह के चरणों मे गिर पड़ी...

'नारी की कलाई बस एक बार ही पकड़ी जाती है बाबु साहेब...मुझे न तो आपके देह की प्यास है न धन जायदाद का शौक...बस चरणों मे जगह दे दीजिए'

'धरमन ! प्रेम न तो भीख में मिलती है और न ही यूँ ही छू जाने से प्रेम और कला का बंधन बनता है' असहज हो गए थे कुंवर सिंह ।

पर धरमन तो हॄदय में कुंवर सिंह को धारण कर चुकी थी...लाख समझाया कुंवर सिंह ने पर वो ना मानी...वो हर एक अग्नि परीक्षा देने को तैयार थी ।

आखिर में धरमन की जिद और जन आकांक्षा ने मजबूर कर दिया कुंवर सिंह को ।

कुंवर सिंह ने एक मुठ्ठी अबीर से काशी-काबा के इस अनूठे मिलन को चरितार्थ कर दिया और राजपुताना परंपरा को निभाते हुए अपनी कटार

धरमन बाई को सौप दी...'इसकी आग बड़ी तेज है संभालकर रखना, मेरे प्रेम की निशानी है' ।

धरमन बाई एक नर्तकी से बूढ़े बाज की छाया बन चुकी थी...

लोग बाग जय जयकार कर उठे ।

धरमन बाई के प्रेम ने कुंवर सिंह को बाबू वीर कुंवर सिंह बना डाला...लड़ाई की बिगुल बज चुकी थी । धरमन बाई क्रांति की अलख जगाने लगी, सैनिकों में उत्साह का संचार किया...आरा से कुंवर सिंह की फौज को रवाना भी करने वाली कोई और नहीं धरमन बाई थी ।

भारतीय इतिहास का शायद यह ईकलौता उदाहरण होगा जब किसी अस्सी वर्ष के योद्धा ने युद्ध मे फिरंगियों के खिलाफ रणभेरी बजाई थी ।

फिरंगियों और वीर कुंवर सेना के बीच काल्पी में भयंकर घमासान हुआ...कहां अत्याधुनिक हथियारों से लैस गोरी सेना कहां मुठी भर आजादी के मतवाले ...आजादी की हार मंडराने लगी...तभी धरमन ने सबको चौकाते हुए तोप संभाल लिया...और फिरंगियों में ऐसी तहस नहस मचाई कि हिंद सैनिकों के जोश में प्राण का संचार हो गया...फिरंगियों के हौसले पस्त होने लगे और अंत मे गोरे भाग चले।

जय घोष के नारे लगे, वीर कुंवर सिंह को विजयश्री ने वरण किया पर इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई ।

युद्ध मे धरमन पूरी तरह घायल हो गई थी...अंतिम अवस्था मे वीर कुंवर सिंह ने धरमन के सिर को अपनी गोद मे लिया...बाबू साहब की आंखों में उदासी थी पर धरमन के मुख पर सुकून के भाव थे....

"हम जीत गए हैं ...और हाँ ये रही आपकी कटार... जरा जांच लीजिये तो...इसकी आग कम तो नहीं हुई..."

आज भी आरा के "धरमन चौक" से बड़ी धीरे गूंज उठती है...वीरांगना धरमन !

जय हिंद !!

संदीप तिवारी 'अनगढ़'

"आरा"

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