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गढ़ तो आया, पर सिंह चला गया...

गढ़ तो आया, पर सिंह चला गया...
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चौड़ी छाती, शेर की तरह मजबूत भुजाएँ, हवा की तरह लहराती चौड़ी तलवार, आसमान में उड़ता लाल रक्त और नभ में लहराता भगवा... फिल्में जब अपनी मिट्टी के योद्धाओं की अतुल्य वीरता पर बनती हैं तो दर्शक केवल देखता ही नहीं, उस शौर्य को जीता है। तान्हाजी ऐसी ही फ़िल्म है, जिसमें हम मराठों के शौर्य को जीते हैं, 'जय भवानी' के उद्घोष को महसूस करते हैं।

भारत के इतिहास में मराठों को सबसे कम स्थान दिया गया है, जबकि उन्होंने बड़ी विकट-विकट लड़ाइयाँ लड़ीं और जीती थीं। एक समय तात्कालिक भारत के लगभग 75% हिस्से पर शान से स्वराज का भगवा लहराया था। फ़िल्म में लहराता भगवा उसी समय की गर्वीली याद दिलाता है।

वस्तुतः भगवा एक रङ्ग मात्र नहीं, भगवा भारत की उस परिकल्पना का नाम है जिसमें हजारों वर्षों से "जीवों पर दया करो" जैसे मंत्र जी रहे हैं। भगवा वह विराट सामियाना है जिसे तानाजी जैसे योद्धाओं ने अपने रक्त से रङ्ग कर इसलिए ताना था ताकि उसकी छाया में बैठ कर सदियां अहिंसा के गीत गा सकें। फ़िल्म अच्छी हो या बुरी, पर देख कर मन किलस उठता है कि काश! काश! काश!

ऐसी फिल्में इसलिए देखी जानी चाहिए ताकि हम अपने योद्धा पूर्वजों को याद कर सकें। उन्हें समझ सकें, राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण को जान सकें। इस फ़िल्म के पहले देश की अधिकांश जनसँख्या को तानाजी का नाम तक ज्ञात नहीं था, फ़िल्म के बाद असँख्य लोग उनकी वीरता से परिचित हुए हैं। अपने इतिहास से यह परिचय होता रहना चाहिए।

तानाजी जैसे योद्धा के रोल में अजय देवगन अपने श्रेष्ठ रूप में दिखते हैं। ऐसा लगता है जैसे दस-बीस शत्रुओं को तो केवल अपनी आँखों से मार देंगे। वे जब चलते हैं तो हॉल में तालियां बजती हैं, जब बोलते हैं तो तालियां बजती हैं, और जब तलवार चलाते हैं तो भरोसा हो जाता है कि मात्र सौ लड़ाकों के बल पर गढ़ जीत लेने वाले तानाजी ऐसे ही रहे होंगे।

अजय देवगन की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे "युवक" नहीं "पुरुष" लगते हैं। योद्धा की बड़ाई उसके सुन्दर मुख के लिए नहीं होती, उसके चौंडे वक्ष, बड़ी आंखों और चपल भुजाओं के लिए होती है। अजय में यह सब है। इस भूमिका के लिए उनसे अच्छा कोई नहीं हो सकता था।

सैफ खान भी अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिका में हैं। फिर भी जाने क्यों वे पद्मावत फ़िल्म वाले खिलजी रनबीर की भौंडी नकल करते हुए दिखते हैं।

सभी कलाकारों का अभिनय जबरदस्त है। काजोल ने भी प्रभावित किया है। नेहा शर्मा के संवाद नहीं के बराबर हैं पर उनकी सुंदरता... खैर छोड़िये!

सङ्गीत फ़िल्म का कमजोर पक्ष है। गीत के बोल भी अच्छे नहीं हैं। पर फ़िल्म के संवाद प्रभावित करते हैं। फ़िल्म का पिक्चराइजेशन भव्य है। एक विशेष बात जो मैंने नोटिस की, वह यह कि फ़िल्म के लेखक और निर्देशक मिल कर खेल गए हैं। मुम्बइया सिनेमा को अभी वाम गिरोह के चंगुल से निकलने में समय लगेगा।

कुल मिला कर तान्हाजी को मेरी ओर से दस में से आठ नम्बर। इस फ़िल्म को जरूर देखा जाना चाहिए... अपने बच्चों के साथ देखा जाना चाहिए।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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