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"परत" हिन्दी का उपन्यास... बेस्टसेलर... अमेजॉन पर

परत हिन्दी का उपन्यास... बेस्टसेलर... अमेजॉन पर
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विश्वास नहीं होता ना!

एकबारगी सचमुच हुआ भी नहीं बंधु...खुद को चिकोटी काटकर तस्दीक करना पड़ा कि कहीं हम स्वप्नलोक में तो विचरण नहीं कर रहे!!

असल में इसमें दोष किसी का नहीं है...पूर्व के कृत्य और उन पर गढ़ी मान्यतायें कुछ इस तरह मन में घर कर गयी हैं कि हम लगभग मान ही चुके हैं कि अब रेणु, प्रेमचंद, निराला, शरत् और परसाई जैसा कुछ नहीं लिखा जा सकता...या ये कि असल साहित्य अब समाज से दूर सेमिनारों की गोद में खेलने वाला वो दुलरूआ बबुआ बन गया है जिसे उसके माँ-बाप इस डर से गाँव की गलियों में नहीं छोड़ते कि कहीं गंवई संस्कृति की चपेट में आकर उनके अंग्रेजीदां बच्चे पर "उजड्ड-गंवार देहाती" का ठप्पा ना लग जाय!

कुछ ऐसी हवा बनी बंधु कि केवल दो हजार प्रतियां (अंग्रेजी साहित्य) बिक जाने के बाद बेस्टसेलर का तगमा अपने आप मिल जाने लगा...ऐसी भी किताबें आयीं जो ड्राईंग रुम में मात्र इसलिए सजायी गयीं ताकि सामने वाले पर अपनी बौद्धिकता का रौब गालिब कर सकें!

हां, बीच में कुछ चतुर सुजान भी मिले जिन्होंने गाँव की नब्ज पकड़ी और उसे बाजार की सीढ़ी बनायी! गाँव की गलियों, खेत-खलिहान और बगीचों में पांव धरे बिना वहां की लोकसंस्कृति को महसूस किये बिना...मात्र सिनेमाई गांवों और बीते दौर के किताबी चित्रणों से बंद कमरे में एक सुविधाजनक धारणा बनायी और कागजों पर उकेर दिया!

छद्म नारीवाद और समाजवाद जैसे प्रचलित नारों की ओट में तमाम साहित्यिक हित साधे और भुनाये गये! लिखने वाले को पारितोषिक और पढ़ने वाले के मुँह से वाह वाह!!! बस...पूरे हो गये सामाजिक दायित्व!!

लेकिन बंधु...इसके दूरगामी परिणाम निकले! कुछ मान्यतायें जो ढंकी-छिपी विषबेल थी, इस कदर अपनी जड़ें जमा लीं कि समाज को गौरवबोध कराने के बजाय आत्महीनता से भर दीं!

प्रिय सर्वेश से इस पटल पर लगभग हम सभी परिचित हैं! बड़ा कठिन है सामाजिक मुद्दों पर सहजता और दृढता से कलम चलाना! वास्तव में एक रचनाकार को बेबाक होना ही चाहिये, क्योंकि तत्कालीन समाज का दस्तावेज उस दौर की रचनायें ही होती हैं!

सर्वेश सच कहने से नहीं चूकते...विभिन्न विषयों पर निर्भीकता से चलाई गयी उनकी लेखनी के कायल तो हम सब हैं ही!

#परत.....इस दौर के सबसे नंगे सच को उजागर करने वाली तस्वीर है! जहां लोग अपनी सुविधाजनक गली तलाश कर निकल लेते हैं, वहीं सर्वेश ने बीच चौराहे...छाती ठोंककर सच बयान करने का साहस किया है!

मित्रों!

"परत" को मंगवाइये...उत्साहवर्द्धन कीजिये इस युवा योद्धा का... ताकि आनेवाले दौर में इस सर्वेश को और हिम्मत मिले, कुछ और नये सृजन की उर्जा मिले...साथ ही साथ हमारे अन्य लेखक भाई और आने वाली पीढ़ी भी प्रोत्साहित हो इस दिशा में आगे बढ़ें... हमारा समाज-हमारा साहित्य पुन:अपना पुराना गौरव प्राप्त करे!

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