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मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री ऐतिहासिक फिल्मों के साथ बड़ा छल कर रही

मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री ऐतिहासिक फिल्मों के साथ बड़ा छल कर रही
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ऐतिहासिक विषयों पर बनी हिन्दी की मुम्बइया फिल्मों को देख कर लगता है कि मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री भारत के साथ बड़ा छल करती है। आप इन दिनों बनी ऐतिहासिक फिल्मों की लिस्ट देखिये, सारी फिल्में उन्ही युद्धों को ले कर बनी हैं जिनमें हिन्दू राजा पराजित हो गए थे।

पद्मावती में राणा रतन सिंह पराजित होते हैं, पानीपत मराठों के पराजय की कहानी है, पृथ्वीराज चौहान भी पराजित ही हुए थे। मणिकर्णिका भी पराजय की ही कहानी है। पेशवा बाजीराव को लेकर फ़िल्म बनी भी तो उसमें 40 युद्ध जीतने वाले योद्धा को भी 'पराजित प्रेमी' के रूप में ही चित्रित किया गया। आखिर क्यों?

क्या भारतीय इतिहास में युद्ध जीतने वाले राजा नहीं रहे? क्या भारत हर बार पराजित ही होता रहा है?

मैं सोचता हूँ, बीर शिवाजी को लेकर फिल्में क्यों नहीं बनती? पेशवा बाजीराव के चालीस युद्धों को ले कर फिल्में क्यों नहीं बनती? छत्रसाल बुन्देला को ले कर फिल्में क्यों नहीं बनती? क्रूर शकों को अकेले खदेड़ देने वाले महान स्कन्दगुप्त पर फिल्में क्यों नहीं बनती? अरबी लुटेरों को तीन सौ वर्ष तक पश्चिम सीमा के उस पार ही रोक कर रखने वाले गुर्जरों, प्रतिहारों पर फिल्में क्यों नहीं बनतीं? मोहम्मद गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश को हरा कर भगवा ध्वज गाड़ने वाले त्रैलोच्यवर्मन पर फिल्में क्यों नहीं बनतीं? क्यों?

असल में पराजित योद्धाओं की कहानियों पर फिल्में इसलिए बनती हैं ताकि हिन्दुओं को गद्दार और कायर कहा जा सके। पद्मावत देख कर निकला युवक कहता है, "हिन्दू गद्दार होते हैं, उस पुजारी ने गद्दारी नहीं की होती तो रावल रतन सिंह जी जीत गए होते।" पानीपत देख कर लौटा लड़का भी वही बात कहता है, "फलाँ ने गद्दारी कर दी नहीं तो मराठे जीत गए होते, हिन्दू गद्दार ही होते हैं।" मणिकर्णिका देख कर निकला छात्र कहता है, "सिंधिया ने गद्दारी कर दी, नहीं तो देश आजाद हो गया होता। हिन्दू गद्दार ही होते हैं। पृथ्वीराज चौहान देख कर निकला लड़का भी यही कहेगा कि जयचन्द ने गद्दारी कर दी नहीं तो...

हर बार हिन्दुओं को गद्दार घोषित करते समय लोग भूल जाते हैं कि तराइन युद्ध में भले जयचन्द साथ नहीं थे, पर शेष असँख्य राजा गोरी के विरुद्ध पृथ्वी के साथ लड़े थे। जो लाखों मराठे महाराष्ट्र से पानीपत जा कर लड़े और वीरगति पाए, वे हिन्दू ही थे और गद्दार नहीं थे।

आप जानते हैं कि पद्मावती की कहानी में खिलजी से मिल जाने वाले राघव चेतन का जिक्र सिवाय मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता? केवल हिन्दुओं में एक गद्दार दिखाने के लिए जायसी ने वह काल्पनिक पात्र गढ़ा था।

पिछले पचास-सौ वर्षों में वामी इतिहासकारों ने जिस जयचन्द को गद्दार घोषित किया है, उनका यदि इतिहास खंगाला जाय तो आप देखेंगे कि जयचन्द गद्दार नहीं थे बल्कि पृथ्वीराज द्वारा अपमानित होने के कारण तराइन युद्ध में उन्होंने केवल चुप्पी साध ली थी।

असल में ऐसी फिल्में इसीलिए बनती हैं कि हमारी इतिहास न पढ़ने वाली नई पीढ़ी के अंदर यह भावना बैठ जाय कि "हमारे पूर्वज योद्धा तो थे पर हार जाते थे, और हिन्दू गद्दार होते रहे हैं।" अगर आप पानीपत फ़िल्म देख कर निकले लड़कों की फेसबुक पोस्ट देखें तो आप समझेंगे कि मुम्बइया सिनेमा इस काम में कितना सफल रहा है।

असल में मध्यकालीन भारत का फ़ारसी साहित्य और जयप्रकाश आंदोलन के बाद का हिन्दी सिनेमा, दोनों सनातन विरोधी रहे हैं/ भारत विरोधी रहे हैं। दोनों ने भारतीयों के मानस पर प्रहार किया है। तब मध्यकालीन सूफीवाद का तोड़ नानक, कबीर, नामदेव, तुलसी, सूर, मीरा आदि ने निकाल लिया था, अभी सिनेमा का तोड़ नहीं निकला।

सिनेमा यदि वामपंथ के चुंगल से नहीं निकला तो भारतीय अस्मिता के ध्वंस में सबसे क्रूर योगदान उसी का होगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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