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हिप्पोक्रेसी...

हिप्पोक्रेसी...
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पिछले दिनों दो तीन स्थानों पर स्त्री विमर्श में पड़ गए। अब पता नहीं यह मेरा सौभाग्य था या दुर्भाग्य, पर दोनों स्थानों पर बहस लम्बी छिड़ गई। मेरे जैसे व्यक्ति को शायद ऐसे विमर्शों से दूर ही रहना चाहिए। यह तिरहुतिया नाच की जोकरई मेरे बस की बात नहीं।

सच पूछिए तो आधुनिक नारीवाद के सारे योद्धा महान हिप्पोक्रेटिक होते हैं। मुझे लगता है आपकी किसी भी विचारधारा का तब तक कोई मूल्य नहीं है, जबतक आप उसे स्वयं के जीवन में नहीं उतार लेते। स्त्री वादियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है, कि वे दुनिया के लिए वह मांगते हैं जो वे खुद के लिए नहीं चाहते।

अच्छा तो यह होता कि चर्चा में स्त्री मुक्ति के नाम पर विवाह जैसी संस्था का विरोध करने वाली प्रगतिशील स्त्रियाँ सबसे पहले स्वयं अपना विवाह तोड़कर मुक्त होतीं, पर वे ऐसा नहीं करतीं।

अच्छा यह होता कि पितृसत्ता के नाम पर दुनिया के समस्त पिताओं को अत्याचारी बताने वाली स्त्रियाँ सबसे पहला थप्पड़ अपने पिता के मुँह पर मारतीं, पर वे ऐसा नहीं करतीं।

अच्छा होता यदि दुनिया के सभी पुरुषों को अत्याचारी बताकर घृणा से उन्हें गाली देने वाली स्त्रियाँ उतनी ही घृणा से अपने पिता, अपने पति, अपने भाई, या अपने बेटे को भी देखतीं, पर ऐसा भी नहीं होता।

"दुनिया के समस्त पिता अत्याचारी हैं, पर मेरे पिता सज्जन हैं। दुनिया के समस्त पति क्रूर हैं, पर मेरे पति महान हैं। दुनिया के समस्त पुरुष घृणा के योग्य हैं, पर मेरे घर के पुरुष बड़े मीठे हैं।" ऐसी बातें बुद्धिजीविता दर्शाती हैं या मूर्खता, यही समझ नहीं आता।

ऊपर से महानता यह कि स्वच्छन्दता की मांग करने वाली नारीवादी से आप पूछ दें कि "आप स्वयं ऐसी हैं?" तो उत्तर मिलता है कि व्यक्तिगत न होइए... जिस बात को व्यक्तिगत रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता, वह समाज के लिए कैसे आदर्श हो सकता है भाई?

एक स्थान पर स्त्रियों के पर्वों की आलोचना करते हुए उसे परतन्त्रता बताया जा रहा था। मैंने कहा कि जिन परंपराओं को आप गुलामी कह कर विरोध कर रहे हैं, देश की 98% स्त्रियां स्वयं उन परंपराओं का समर्थन करती हैं। और यह भी सत्य है कि उन्ही पर्वों के कारण उन्हें दैनिक जीवन की भागदौड़ से कुछ दिनों की मुक्ति मिलती है, नहीं तो आज की व्यस्त जीवनशैली में स्वयं के लिए भी किसी के पास समय नहीं। तो स्त्रियाँ जब स्वयं उन परंपराओं का आनंद उठा रही हैं और उनको छोड़ना नहीं चाहतीं, तो फिर आप विरोध करने वाली कौन?

उत्तर मिला कि वे सारी स्त्रियां मूर्ख हैं, गुलाम हैं। जो मैं कह रही हूँ, वह सही है। मैंने कहा, "यह तो जबरदस्ती दो प्रतिशत लोगों की विचारधारा को अठानवे प्रतिशत के ऊपर थोपने वाली बात हुई। गुलाम बनाने का प्रयास तो आप कर रही हैं।"

विमर्श इतने पर ही बंद हो गया!

छठ पर्व आने वाला है। जल्द ही दिल्ली में बैठ कर मैत्रेयी पुष्पा जी बिहार की सारी स्त्रियों को मूर्ख बताएंगी। यही उनका नारीवाद है...

मुझे लगता है व्यक्ति को गुलाम बनाने का प्रयास सबसे अधिक ये कथित "वादी" करते हैं। साम्यवाद, स्त्रीवाद, पुरुषवाद, आलूवाद परोरावाद... मनुष्य जब इन वादों, विचारधाराओं में बंध जाय तो दुनिया उसे गुलाम दिखने लगती है, पर सच में वह स्वयं गुलाम हो गया रहता है और दुनिया को अपनी तरह ही विचारधारा का गुलाम बनाने का प्रयास करने लगता है।

दुनिया का कोई वाद, कोई विचारधारा पूर्णतः सत्य नहीं हो सकती। निर्णय विचारधारा के अनुसार नहीं, परिस्थितियों के अनुसार होने चाहिए। और परिस्थितियाँ यह कह रही हैं कि मुझे विमर्शों में नहीं पड़ना चाहिए। सो लाल सलाम!

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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