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शरद पूर्णिमा और सीतापुर के रतन : आराध्य शुक्ल

शरद पूर्णिमा और सीतापुर के रतन  : आराध्य शुक्ल
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आज शरद पूर्णिमा है,सीतापुर के लिए ये दिन बेहद खास है ,आज ही के दिन ज़िले की 2 महान विभूतियों का जन्म हुआ,ऐसी सख्सियत जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से सीतापुर को पूरी दुनिया तक पंहुचाने का काम किया ,एक ने अपने पुरसार्थ से दुनिया के लाखों लोगों को चक्षु (नेत्र ज्योति)देने का काम किया तो दूसरे ने ज्ञान चक्षु (शिक्षा और साहित्य) देने का काम किया ,

आज विश्व प्रसिद्व सीतापुर के नेत्र चिकित्सालय के संस्थापक स्वर्गीय महेश चंद्र मेहरे और अवधी साहित्य के प्रकांड पंडित और शिक्षाविद स्वर्गीय डॉ श्याम सुंदर मिस्र "मधुप जी"का जन्मदिन है

मैं तकरीबन कोई 6 या 7 बरस का था ,सीतापुर में मेरा घर आंख अस्पताल के समीप ही है ,लेकिन उस दौर में हम लोग बिसवां में ही रहा करते थे ,कभी कभी सीतापुर आना होता था ऐसी ही एक शाम पापा मुझे आंख अस्पताल के कैंपस में ले गए ,जंहा डॉ मेहरे की मूर्ति लगी है उसी के सामने बनी बेंचो पर बैठने के बाद उन्होंने मुझसे डॉ मेहरे की समाधि पर लिखी पंक्तिया पढ़कर आने को कहा ,और वो उस दिन पढ़ी पंक्तिया आज भी जस की तस याद है ,शायद ये मानस की उन चंद लाइनों में एक है जो मुझे सबसे पहले याद हुई ,उस समाधि पर लिखा हुआ है

"परहित लागि तजहि जे देहि

संतति संत प्रसंसहि तेहि"

सच कितनी सार्थक और प्रासंगिक है ये पंक्तियां ,कितना विलक्षण व्यक्तित्व था डॉ मेहरे का ,जिस तरह से मालवीय जी ने पूरे देश मे घूम घूम कर bhu की स्थापना की ठीक उसी तरह डॉ मेहरे ने इस अस्पताल की स्थापना की ,जो आज एशिया का सुप्रसिद्ध नेत्र चिकित्सालय के रूप में जाना जाता है ,पूरे देश मे इसकी साखाये है और छोटे से कमरे में शुरू हुआ ये अस्पताल आज एक वट वृक्ष का रुप ले चुका है ,आप कंही भी जाये ,सीतापुर की पहचान आंख अस्पताल के नाते हर कोई कर लेता है ,आज ये अस्पताल जिस स्वरूप में दिखाई देता है उसके पीछे डॉ मेहरे के पुरसार्थ और संघर्ष की एक लंबी दास्तान है और शायद यही कारण है कि एक दौर में नेताओ की वक्र दृष्टि और माफियाओ की दखलंदाज़ी के बावजूद ये अस्पताल आज भी अपनी गरिमा और अस्मिता को अक्षुण्य रखे हुए है ,अस्पताल के संस्थापक को उनके जन्मदिवस पर शत शत नमन और श्रद्धासुमन''।

डॉ मेहरे के साथ ही आज ही एक और डॉ का भी जन्मदिन है ये वो डॉ है जिसने अपने ज्ञान से पूरी दुनिया को संदेश देने का काम किया ,वैसे तो उन्होंने 3 दर्जन से भी अधिक ग्रंथो की रचना की लेकिन हिंदी की बोली अवधी को उसकी पेहचान दिलाने उसका गौरव स्थापित करने में उनका अतुल्यनीय योगदान है ,उन्होंने अवधी साहित्य का इतिहास वांगमय लिखा जो अवधी का विलक्षण ग्रंथ है ,इसके अलावा उन्होंने अपने जीवनकाल में ही तुलसी पीठ की स्थापना करके साहित्य में अपना अतुलनीय योगदान दिया ,

मूलतः शिक्षक डॉ मधुप ने सिधौली में माध्यमिक शिक्षा से अपना सफर शुरू करके हरदोई होते हुए स्थानीय आर.एम.पी.डिग्री कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष तक तय किया और इस जगत को श्रेष्ठ जन दिए ,वर्तमान राज्यसभा सदस्य और प्रदेश के पूर्व शिक्षामंत्री डॉ अशोक बाजपई भी उनके विद्यार्थियों में रहे ,

मुझ पर तो उनकी विशेष अनुकंपा रही अपने लगभग एक दर्जन ग्रंथो की भूमिका में उन्होंने मेरे नाम का उल्लेख किया और देश के मूर्धन्य साहित्यकारों ,अधिकारियों से मिलने का अवसर मुझे उन्ही के माध्यम से प्राप्त हुआ ,आकाशवाणी से लेकर अयोध्या और चित्रकूट के रामायण मेले का संचालन करने का सौभाग्य मुझे उन्ही की कृपा दृष्टि के रहते मिला ,जब तक वे जीवित रहे मेरे जन्मदिन और हर महत्वपूर्ण अवसर पर अपनी सुभकामनाये लिख कर मुझे जरूर भेजते थे। आज भी उनकी हस्तलिपि के वो सारे पत्र मेरे जीवन की निधि है लेकिन डॉ मधुप के जीवन का सबसे बड़ा पहलू ये था कि विद्वता के साथ ही विनम्रता उनके व्यक्तित्व का आकर्षण थी ,इतना सरल और सौम्य व्यक्तित्व तो आपने जीवन मे कभी देखा ही नही होगा ,उनसे मिलकर कभी आप ये सोच भी नही सकते कि आसमान से भी ऊंचे और सागर से भी गहरे इंसान से मिलकर आये है आप,माँ लक्ष्मी और सरस्वती दोनो की अनुकंपा थी उनपर मैं तो उनको बहुत निकट से जानता था शायद जीवन का उनका सबसे बड़ा दुख उनकी धर्मपत्नी का बहुत पहले चला जाना था और एक मात्र लालशा जो वो अपने जीवन मे पूरी होते न देख सके वो अपने छोटे पुत्र साकेत की सियासत में चुनावी जीत थी ,जिसके मोह में जीवन पर्यंत कांग्रेसी रहे इस व्यक्तित्व ने बसपा और भाजपा तक को स्वीकार किया।

डॉ मधुप जब गए वो जीवन की शताब्दी पूरी करने के बहुत करीब थे लेकिन विधाता को शायद ये मंजूर न था ,वो मुझसे अक्सर कहते जल्दी जल्दी आया करो ज्यादा दिन का हु नही मैं ,और मैं हर बार हंस कर कहता कि बिना साकेत भैया को विधायक देखे आप जा नही सकते ,लेकिन ऐसा न हो सका

अखिल विश्व को ज्ञान और लोककल्याण की सीख देने वाले महृषि वाल्मीकि के जन्मदिवस के दिन ही सीतापुर की इन दो महान विभूतियों का जन्म एक संयोग भी है और माँ सीता की इस धरती को एक वरदान भी

सीतापुर की इन दोनों महान विभूतियों के श्री चरणों मे नमन और श्रधांजलि।

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