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" व्यभिचार अब अपराध नहीं।" उसे क्या आशीर्वाद दूँ?

 व्यभिचार अब अपराध नहीं। उसे क्या आशीर्वाद दूँ?
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आज एक बच्चे का जन्मदिवश है। उसे आशीर्वाद देना है। मैं विचार रहा हूँ, उसे क्या आशीर्वाद दूँ?

आज ही देश की उच्च न्यायालय ने कहा है," व्यभिचार अब अपराध नहीं।" अपनी धरा, अपने संस्कार, अपनी परम्पराओं से जुड़ा एक ब्राह्मण ऐसे समय में अपने बच्चों को क्या आशीर्वाद दे?

कल यदि उस आठ वर्ष के बच्चे पर पैंतालीस वर्ष का कोई पुरुष यह कहते हुए केस कर दे कि इसने मेरे लिए 'जातिसूचक शब्दों' का प्रयोग किया है, तो इस देश की न्यायपालिका बिना किसी साक्ष्य के ही उसे वर्ष भर के लिए बन्दीगृह में डाल देगी। ऐसी महान व्यवस्था वाले देश में हम क्या आशीर्वाद दें अपने उस बच्चे को, जिसके जन्म के समय ही उसके माथे पर 'शोषक' होने की मुहर लग गयी थी।

बड़ा कठिन है अब अपने बच्चों से आँख मिला पाना भी। डरता हूँ, कल अपने ही किसी बेटे की तिरस्कार भरी दृष्टि यह न पूछ बैठे कि "क्या हमारे पुरुखे सच में शोषण करते थे?"

क्या उत्तर देना होगा? कैसे कहेंगे कि "नहीं! यह सत्य नहीं।" देश का संविधान कहता है कि वे शोषण करते थे। देश की संसद कहती है कि वे शोषक थे। फिर मैं कैसे देश के इन सबसे बड़े मठों की बात को असत्य सिद्ध कर सकता हूँ? संसद की दृष्टि में वह मोहम्मद बिन कासिम शोषक नहीं था, जिसने मुल्तान में भारतीय स्त्रियों की कटी हुई छातियों से गेंद खेली थी। संसद की दृष्टि में वह कुतुबुद्दीन ऐबक शोषक नहीं था जिसने भारत की धरती पर पहला "पैखाना" बनवाया और माथे पर मैला ढोने की परम्परा प्रारम्भ की। संसद की दृष्टि में वह अकबर शोषक नहीं था जो राजाओं के राज्य नहीं लूटने के मूल्य में उनकी बेटियां मांगता था। संसद की दृष्टि में वे ईसाई पादरी शोषक नहीं थे जो गोआ में दरिद्र बच्चों को बारह घण्टे काम नहीं करने पर बाइबल पढ़ कर फाँसी चढ़वाते थे। संसद की दृष्टि में वे कश्मीरी शोषक नहीं जिन्होंने स्वतन्त्र देश में ही दस लाख हिन्दुओं को खदेड़ दिया। इस महान संसद की दृष्टि में शोषक वे कश्मीरी पण्डित हैं जिनके पास पिछले पच्चीस वर्षों से अपना घर तक नहीं। संसद की दृष्टि में शोषक था वह चाणक्य, जिसने सड़क पर खेलते एक दरिद्र बच्चे को भारत का सम्राट बनाया। संसद की दृष्टि में शोषक हैं चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के भतीजे। इस महान संसद की दृष्टि में शिवाजी महाराज के बच्चे शोषक हैं और औरंगजेब के बच्चे शोषित। इस देश में लार्ड डलहौजी के बच्चों को अल्पसंख्यक कोटे से विशेष सुविधाएं दी जाती हैं, और महारानी झाँसी के बच्चों को शोषक कहा जाता है। फिर ऐसे देश में एक ब्राह्मण क्या आशीर्वाद दे अपने बच्चे को?

क्या भविष्य में कोई विश्वास करेगा कि स्वतन्त्रता के पचास वर्षों बाद भी भारत के जंगलों में बुखार की चार गोलियों के बदले में वनवासियों का धर्म परिवर्तन कराया जाता रहा है। और महान न्यायपालिका की दृष्टि में यह कोई अपराध नहीं।

इस देश में टीवी-सिनेमा के लिए क्रूर निर्देशक के आदेश पर एक पाँच वर्ष के बच्चे की दस घण्टे की रिहल्सल और उसके बाद उससे खतरनाक स्टंट करवाना अपराध नहीं, पर तेरह वर्ष के किसी बच्चे का अपने पिता के काम में सहयोग करना अपराध है।

क्या सचमुच यह देश स्वतन्त्र है? क्या सचमुच देश के सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं?

जिस बच्चे के जन्म के आधार पर उसके अधिकांश अधिकार छीन लिए गए हों, उसको कोई क्या आशीर्वाद दे?

सोचता हूँ अपने उस भतीजे को यह आशीर्वाद दूँ, "जैसे भी हो धन अर्जित करो पुत्र! नैतिक, अनैतिक किसी भी विधि से... पाप- पुण्य कुछ भी कर के... बस धन अर्जित करो। धनवानों को न्यायपालिका छू नहीं पाती। संसद धनवानों की दासी होती है। धन हो तो पूरी व्यवस्था तुम्हारे समक्ष कुक्कुर की भांति पूँछ हिलायेगी।"

पर काश कि यह आशीर्वाद दे पाता! एक शिक्षक यह भी तो नहीं कर सकता...

आर्यावर्त के हजारों वर्षों के इतिहास में स्यात ऐसा दुर्दिन कभी न आया होगा, जब कोई व्यक्ति अपने बच्चे के लिए आशीर्वाद भी न ढूंढ पाए।

अपने उस भतीजे से आज यही कहूँगा, सशक्त बनो पुत्र! इतने सशक्त कि तुम्हें अपने बच्चों को आशीष देते समय दुविधा न हो।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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