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राष्ट्रपति की 'क्षमादानशक्ति'की न्यायिक व्याख्या (धीरेन्द्र कुमार दुबे)

राष्ट्रपति की क्षमादानशक्तिकी न्यायिक व्याख्या    (धीरेन्द्र कुमार दुबे)
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►-संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गतनिहित क्षमादान इत्यादि की शक्ति राष्ट्रपति का कोई दया का मामला नहीं है बल्कि यह देश की जनता द्वारा उनमें विश्वास के रूप में निहित किया गया एक सांविधानिक कर्त्तव्य है। मृत्युदंड के निष्पादन में अत्यधिक, अनावश्यक और अतार्किक विलंब अमानवीय तथा कैदी को यातना देने के समान है, जिससे उसके संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्रदत्त प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है। इसलिए वह अपने मृत्यु दंडादेश को आजीवन कारावास में परिवर्तित करवाने का हकदार है। उपर्युक्त व्यवस्था के साथ उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पूर्णपीठ ने न केवल राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति की न्यायिक व्याख्या की है अपितु मृत्युदंड की सजा प्राप्त उन 15 कैदियों की फांसी की सजा को भी आजीवन कारावास में बदल दिया है, जिनकी दया याचिकाएं राष्ट्रपति ने अस्वीकार कर दी थी और उनके मृत्युदंड के निष्पादन की तैयारी कीजा रही थी।
►-उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी. सथशिवम और न्यायमूर्तिगण रंजन गोगोई तथा शिवकीर्ति सिंह की तीन सदस्यीय पूर्णपीठ ने 21 जनवरी, 2014 को अपने ऐतिहासिक और मार्गदर्शक निर्णय में भारत के संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति की और अनुच्छेद161 के अंतर्गत राज्यपाल की न्यायिक शक्ति अर्थात क्षमादान आदि शक्तियों की पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत की।
►-शत्रुघ्न चौहान और एक अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2014) नामक याचिका पर अंतिम निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय की पूर्णपीठ ने 15 याचियों के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करते हुए निम्नलिखित व्यवस्था दी है-
►-अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति में और अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राज्यपाल में निहित शक्ति एक सांविधानिक कर्त्तव्य है। यह न तो कोई दया का मामला है और न ही विशेषाधिकार का बल्कि यह जनता के द्वारा सर्वोच्च प्राधिकारी में निहित किया गया एक महत्त्वपूर्ण सांविधानिक उत्तरदायित्व है।क्षमादान इत्यादि की शक्ति यद्यपि न्यायिक समीक्षा से परे है किंतु अनुच्छेद 72/161 के अंतर्गत शक्तियों के प्रयोग के तरीके की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
►-मृत्युदंड के निष्पादन में असम्यक, असाधारण और अयुक्तियुक्त विलंब कैदी को यातना (टार्चर) देने के समान है, जो कि उसे अनुच्छेद 21 केअंतर्गत प्रदत्त मूल अधिकार (प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन करता है।दया-याचिका के निस्तारण में यदि कार्यपालिका (राष्ट्रपति) की ओर से अत्यधिक विलंबकिया गया है या याचिकाकर्ता पागलपन या मानसिक अस्वस्थता इत्यादि से ग्रसित है तो यह मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने का एक आधार होगा और इसके लिए याचिकाकर्ता अपनी दया-याचिका राष्ट्रपति द्वाराअस्वीकार कर दिए जाने के बाद अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका प्रस्तुत करने का अधिकारी होगा।
►-प्रत्येक सिद्धदोष कैदी को दया-याचिका प्रस्तुत करने का संवैधानिक अधिकार है। यहां तक कि 'टाडा' मामले में मृत्युदंड की सजा प्राप्त कैदी भी दया-याचिका प्रस्तुत कर सकता है। दया-याचिका पर उचित प्रक्रिया के तहत विचार किया जाना कैदी का अनुच्छेद-21 के अंतर्गत मूल अधिकार है। यद्यपि दया-याचिका के निस्तारण के लिए कोई समय-सीमा नियत नहीं है किंतु इसे अवश्य ही एक निश्चित और युक्तियुक्तसमय-सीमा के भीतर निस्तारित किया जाना चाहिए।महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश
►-उपर्युक्त निर्धारण के अलावा उच्चतम न्यायालय ने अनेक दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं ताकि भविष्य में मृत्युदंड से दंडित किसीसिद्धदोष कैदी की दया-याचिका के निस्तारण में इतना विलंब न हो कि वह एक दिन मरने (फांसी) के बजाय प्रायश्चितार्थ मानसिक रूप से उस प्रत्येक दिन मृत्यु का अनुभव करे जब तक उसकी दया-याचिका लंबित रहे।
►-मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों के मूल अधिकारों की रक्षा और उनकी दया-याचिकाओं के शीघ्र निस्तारण के लिए जिन दिशा-निर्देशों को जारी किया गया है, उनमें मुख्य निर्देश इस प्रकार हैं-
►-दया-याचिका का निस्तारण युक्तियुक्त समय के भीतर किया जाना चाहिए।दया-याचिका को अस्वीकार किए जाने के पूर्व कैदी का एकांत परिरोध या एकल परिरोध (काल कोठरी में डाला जाना) असंवैधानिक है। अतः जेल के कारावास के नियम इस निर्धारण एवं अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संशोधित किए जाएं।
►-दया-याचिका प्रस्तुत करने के लिए प्रत्येक कैदी को अनुच्छेद 39-A के अंतर्गत निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करने की राज्य सरकार के द्वारा व्यवस्था की जाए।
►-याचिका अस्वीकार किए जाने की सूचना संबंधित कैदी को और उसके परिवार के सदस्यों को लिखित रूप में दी जाए। इसके साथ ही साथ सभी महत्त्वपूर्ण आवश्यक दस्तावेज भी उसे उपलब्ध कराए जाएं।मृत्युदंड की सजा प्राप्त कैदी राष्ट्रपति या राज्यपाल के द्वारा दया-याचिका अस्वीकार किए जाने पर 'अस्वीकृति' की एक प्रति प्राप्त करने का अधिकारी है।
►-मृत्युदंड का निष्पादन किए जाने से 14 दिन पूर्व संबंधित कैदी को इसकीसूचना दी जाए। ऐसे निष्पादन से पूर्व उसकी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का परीक्षण किया जाए तथा उसके एवं उसके परिवार के सदस्यों के बीच अंतिम मुलाकात का प्रबंध किया जाए।
►-फांसी की सजा के निष्पादन के बाद मृतक के शरीर का मृत्योपरांत परीक्षण (पोस्टमॉर्टम) कराया जाए।
►-क्या था मामला ?देश के राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को संविधान प्रदत्त न्यायिक शक्ति (क्षमादान) को चुनौती देने वाला यह मामला अपने आप में एक लंबा इतिहास समेटे हुए है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत 16 याचिकाओं में से 15 याचिकाएं स्वयं मृत्युदंड पाए कैदियों द्वारा या उनकी ओर से किसी अन्य (पारिवारिक सदस्य) ने अनुच्छेद32 के अंतर्गत प्रस्तुत की थीं। इन सभी की दया-याचिकाएं राष्ट्रपति ने खारिज कर दी थीं। अतः उनके मृत्युदंडादेश का निष्पादन (फांसी दिया जाना) होना था। इन सभी याचिकाओं में सामान्य बात यह थी कि अधिकांश मामलों में दया-याचिका अस्वीकार करने में राष्ट्रपति की ओरसे 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक का समय लिया गया था, जबकि दो मामलों में कैदीमानसिक रूप से अस्वस्थ थे। इसी परिप्रेक्ष्य में पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (PUDR) की ओर से एक याचिका प्रस्तुत करके दया-याचिकाओं के निस्तारण के लिए दिशा-निर्देश जारी करने की मांग की गई थी। इन सभी मामलों में याचिका क्षमादान के लिए नहीं अपितु मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलने के लिए प्रस्तुत की गई थी।
►-इस मामले में याचिकाकर्ताओं यथा-शत्रुघ्न चौहान और महिंदर चौहान के परिवार के सदस्यों सुरेश और रामजी (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) को अपने ही परिवार के पांच सदस्यों की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड की सजा दी गई थी, जिसकी पुष्टि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी 23 फरवरी, 2000 को कर दी थी और 20 मार्च, 2001 को उच्चतम न्यायालय के द्वारा अपील निरस्त होने के बाद सुरेश और रामजी ने क्रमशः 9 मार्च, 2001 और 29 अप्रैल, 2001 को राष्ट्रपति के समक्ष दया-याचिका प्रस्तुत की थी, जिसे 12 वर्ष के बाद राष्ट्रपति के द्वारा अंततः 8 फरवरी,2013 को अस्वीकार कर दिया गया था। इन 12 वर्षों के दौरान याची की याचिका राज्य सरकार, गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति के कार्यालय में चक्कर लगाती रही, किंतु इसके निस्तारण में लगे 12 वर्षों के समय का कोई भी क्षम्य, युक्तियुक्त और तर्कपूर्ण कारण नहीं दिया जा सका। अंततः उच्चतम न्यायालय ने स्वयं वह कार्य किया जिसे राष्ट्रपति को करना चाहिएथा। ऐसा ही विलंब अन्य याचिकाओं में भी हुआ था, जिस पर उच्चतम न्यायालय नेदया-याचिकाओं की सांविधानिक तथा कैदी के मूल अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या प्रस्तुत की।
►-क्या है दया याचिका ?संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति (राष्ट्र-प्रमुख) को और अनुच्छेद 161 में राज्यपाल (राज्य प्रमुख) को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष व्यक्ति के अपराध को क्षमाकरने की शक्ति प्रदान की गयी है, जिसमें दंड को कम कर देने या उसकीप्रकृति को परिवर्तित कर देने की भीशक्ति सम्मिलित है। अतः जब कोई कैदी अपने दंड को क्षमा करने या कम करने का याचना-पत्र (याचिका) राष्ट्रपति या राज्यपाल को भेजता हैतो उसे ही सामूहिक रूप में दया-याचिका की संज्ञा दी जाती है। राष्ट्रपति की यह शक्ति हमारे देश में स्थापित इस प्राचीनतम अवधारणा पर आधारित है कि 'राजा' किसी भी अपराधी के दंड को पूर्णतः क्षमा कर सकता है। चूंकि राजा देश का प्रमुख होता था, अतः यह शक्ति संविधान के द्वारा देश एवं राज्य के प्रमुख क्रमशः राष्ट्रपति एवं राज्यपाल में निहित की गयी है।
►-दया-याचिका के निस्तारण की प्रक्रिया हमारी न्यायिक प्रणाली के अंतर्गत किसी व्यक्ति की हत्या जैसे जघन्य अपराध, जिसका वर्तमान या भूतकाल में कोई दृष्टांत नहीं मिलताअर्थात वह मामला विरल से भी विरलतम है, में मृत्युदंड प्रारंभतः सत्र न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है, जिसकी पुष्टि उच्च न्यायालय के द्वारा की जाती है। दोषी व्यक्ति उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है और अपील निरस्त हो जाने पर वह दंडादेश अंतिम हो जाता है और उसके निष्पादन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, किंतु संविधान के अनुच्छेद 72 के अंतर्गत व्यक्ति अपने दंड के क्षमादान के लिए 'राष्ट्रपति' के समक्ष दया-याचिका प्रस्तुत कर सकता है। दया-याचिका प्रस्तुत कर दिए जाने पर मृत्युदंड का निष्पादन याचिका पर निर्णय होने तक के लिए स्थगित कर दिया जाता है।
►-दया-याचिका निस्तारण का राजनीतिकरणजब दया-याचिका राष्ट्रपति के समक्ष भेजी जाती है तो राष्ट्रपति उसे गृहमंत्रालय/राज्य सरकार को भेज देते हैं। गृह मंत्रालय/राज्य सरकार की सिफारिश के अनुसार राष्ट्रपति याचिका को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का निर्णय लेते हैं। चूंकि राष्ट्रपति का निर्णय मंत्रिपरिषद के विनिश्चय पर आधारित होता है (अनुच्छेद 74), इसलिए इस पर 'राजनीतिकप्रभाव' स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यही कारण है कि अनेक मामलों में 'राजनीतिक-स्वार्थ' से परिपूर्ण विनिश्चय देखने को मिले। अंततः एपुरु सुधाकर और एक अन्य बनाम आंध्रप्रदेश राज्य और अन्य (2006) के मामले में उच्चतम न्यायालय को यह निर्णीत करना पड़ा कि यदि अनुच्छेद 72/161 के अंतर्गत राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के शक्तियों का प्रयोग राजनीतिक फायदे के लिए किया गया है तो उसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, फिर भी सरकार की प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं आया।
►-इस मामले की सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि वर्ष 1980 तक दया-याचिकाओं के निस्तारण में 15 दिन से लेकर 10-11 महीनों का समय लिया गया, किंतु 1980 से 1988 के बीच में यह अवधि औसतन 4 वर्ष की हो गई और उसके बादतो स्थिति इतनी गंभीर हुई कि यह 12 वर्षों तक लंबित रहा। यह भी स्मरणीय है कि आतंकी अजमल कसाब और संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने का मामला तूल न पकड़ता तो यह अवधि और भी विस्तारित हो सकती थी। यहां भी राजनीति हावी रही।
►-निर्णय का प्रभाव उच्चतम न्यायालय के द्वारा दिए गए इस निर्णय का निश्चय ही भविष्यलक्षी प्रभाव होगा। फिलहाल इस निर्णय में दिए गए आधारों पर देविंदर पाल सिंह भुल्लर (जिसने 14 जनवरी, 2003 को अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति के समक्ष दया-याचिका प्रस्तुत की थी और जिसकी याचिका को राष्ट्रपति ने लगभग 9 वर्ष बाद 13 जून, 2013 को अस्वीकार करदिया था, किंतु उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं होने तथा राजनीतिक व सांगठनिक विरोध के कारण उसके मृत्युदंड का निष्पादन नहीं होसका था) ने एक बार फिर उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका प्रस्तुत की है। इसके साथ ही स्व. प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में मृत्युदंड की सजा पाए तीन कैदियों ने भी अपनी मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित किए जाने की याचिका प्रस्तुत की थी, जिन पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालयकी इसी पीठ ने गत 18 फरवरी, 2014 को तीनों कैदियों मुरुगन, सान्तन और पेरारिवलन के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया है। इनकी भी याचिका राष्ट्रपति के समक्ष पिछले 11 वर्षों से लंबित थी, जिसे पिछले वर्ष राष्ट्रपति के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था। फिलहाल यह पहला मामला है जब किसी आतंकी के मामले में विलंब के आधार पर मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में परिवर्तित किया गया है।
►-सांविधानिक व्यवस्थाअनुच्छेद 72-क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राष्ट्रपति की शक्ति-1. राष्ट्रपति को, किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराये गए किसी व्यक्ति केदंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी-(क) उन सभी मामलों में, जिसमें दंड या दंडादेश सैन्य न्यायालय ने दिया है;(ख) उन सभी मामलों में, जिसमें दंड या दंडादेश ऐसे विषय संबंधी किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया है,जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है;(ग) उन सभी मामलों में, जिनमें दंडादेश, मृत्यु दंडादेश है।2. खंड (1) के उपखंड (क) की कोई बात संघ के सशस्त्र बलों के किसी ऑफिसर की सेना न्यायालय द्वारा पारित दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की विधि द्वारा प्रदत्त शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी।3. खंड (1) के उपखंड (ग) की कोई बात तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन किसी राज्य के राज्यपाल के द्वारा प्रयोक्तव्य मृत्युदंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी।
►-अनुच्छेद 161- क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति-किसी राज्य के राज्यपाल को उसविषय संबंधी जिस विषय पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध केलिए सिद्धदोष ठहराये गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने कीअथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।अनुच्छेद 72 एवं 161 में मुख्य अंतर-मृत्यु दंडादेश को पूर्णक्षमाकी शक्ति केवल 'राष्ट्रपति' में ही निहित है, जबकि शेष शक्ति राष्ट्रपति एवं राज्यपाल दोनों मेंनिहित है।उच्चतम न्यायालय से अपील निरस्त होने के बाद 7 दिन के भीतर दया-याचिकाराष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की जासकती है।
►-मृत्युदंडादेश: स्मरणीय तथ्यभारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 53 के अंतर्गत मृत्युदंड एक विधिपूर्णदंड है और राज्य के विरुद्ध युद्ध या किसी व्यक्ति/व्यक्तियों की हत्या के मामले में मृत्युदंड की सजा दी जा सकती है।मृत्यु दंडादेश दिए जाने की दशा मेंऐसे दंडादेश का विशेष कारण लिखनाअनिवार्य होता है तथा यह भी कि "उसे गर्दन में फांसी लगाकर तब तक लटकायाजाए जब तक उसकी मृत्यु न हो जाए।"संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रस्ताव संख्या 65/2000 दिनांक 27 अप्रैल, 2000 का खंड (3) (e) सदस्य देशों से मानसिक अस्वस्थता से पीड़ित व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा नहीं देने अथवा ऐसी सजा प्राप्त कैदी का मृत्युदंड निष्पादित नहीं करने की अपील करता है। भारत संयुक्तराष्ट्र का सदस्य होने के कारण इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए बाध्य है।संयुक्त राष्ट्र महासभा के 62वेंसत्र में 18 दिसंबर, 2007 को एक प्रस्ताव पारित करके कहा गया कि यद्यपि मृत्युदंड की सजा कायम रखा जाना एक चिंताजनक विषय है किंतु जब कभी इसे अधिरोपित या निष्पादित कियाजाए उस समय अंतर्राष्ट्रीय मानवीय मानकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पदभार ग्रहण करने के बाद अतबीर नामक कैदी की दया-याचिका को स्वीकारकर के उसके मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया था। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से अभयदान पाने वाला अतबीर प्रथम व्यक्ति है।इसके पूर्व तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने अपने कार्यकाल में सर्वाधिक 23 कैदियों के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया था जो अब तक निस्तारित याचिकाओं का 90 प्रतिशत है।

राज्यसभा की कार्य प्रणाली पर बहस होनी चाहिए। बदलते हुए राजनीतिक परिवेश में इसकी बदलती भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिए। परंतु इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जाना चाहिए।

हमारी संसद की पूर्णता दोनों सदनों से है इसलिए किसी एक से छेड़छाड़ करने का विचार संविधान की आत्मा से खिलवाड़ करना होगा। संघीय संतुलन बनाए रखने में अब तक राज्यसभा असाधारण भूमिका निभाती आई है
संविधान के अनुच्छेद 80 में राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों और संघ शासिल राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं।

राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने वाले 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला या समाजसेवा आदि क्षेत्रों के विशेषज्ञ होते हैं। इन्हें अपने क्षेत्रों का व्यावहारिक अनुभव होता है।

संविधान में राज्यसभा को दो विशेषाधिकार दिए हैं। अनुच्छेद 249 के अंतर्गत राज्यसभा संसद को राज्य सूची के अंतर्गत सूचीबद्ध किसी भी विषय पर कानून बनाने के लिए प्राधिकृत कर सकता है। केन्द्र और राज्य, दोनों में ही नई 'आॅल इंडिया सर्विसेज' बनाने का अधिकार राज्यसभा की मंजूरी से ही मिल सकता है। यह अधिकार लोकसभा के पास नहीं है।

हमारे संविधान में 'चेक एण्ड बैलेंस' के सिद्धांत को आधार बनाया गया है। राज्यसभा को संविधान में मिला विशिष्ट दर्जा इसी का उदाहरण है। भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यसभा देश के हर राज्य और उसकी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है।

समय से राज्यसभा के अस्तित्व पर प्रश्न उठने लगे हैं। इसे समाप्त करने की मांग अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक है। किसी भी संघीय शासन में विधायिका का ऊपरी सदन सांविधानिक बाध्यता के चलते राज्यों के हितों की रक्षा करने के लिए होता है। राज्यसभा का गठन एक 'पुनरीक्षण सदन' के रूप में हुआ है, जो लोकसभा द्वारा पारित प्रस्तावों की समीक्षा करे।

विगत दिनों हुए राज्यसभा सीटों के चुनाव में विधायकों के क्रय-विक्रय, क्रॉस वोटिंग और वोट को खराब करने जैसी अनियमितताएं उजागर हुई हैं। अवैध पूंजी और कालेधन के इस्तेमाल से राजनीति की नैतिक पूंजी का तेजी से क्षरणा हो रहा है। निश्चित रूप से यह एक गंभीर मामला है।
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