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जीएसटी को वर्तमान संरचनात्मक कमज़ोरियों के साथ ढोना किसी सरकार के वश में नहीं है। यह हमेशा सरकार के गले में अटकी हड्डी ही रहेगा। प्रेम शंकर मिश्र

जीएसटी को वर्तमान संरचनात्मक कमज़ोरियों के साथ ढोना किसी सरकार के वश में नहीं है। यह हमेशा सरकार के गले में अटकी हड्डी ही रहेगा।    प्रेम शंकर मिश्र
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जीएसटी मूलतः भारत के संघीय ढांचे की नींव को कमजोर करने वाली एक कर-प्रणाली है।

दुनिया के कई देशों में ऐसी एक केंद्रीभूत कर प्रणाली होने पर भी भारत में कर लगाने और उनकी उगाही के मामले में केंद्र के साथ-साथ राज्यों की सापेक्ष स्वायत्तता की चली आ रही प्रणाली यहां पूरी तरह सफल रही है और इसने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने में भी अपनी एक भूमिका अदा की है।

फिर भी, किसी भी राज्य के लिये करों में सुधार उसके विवेचन का एक स्थायी विषय होने के नाते, बाज हलकों में हमेशा इस विषय में भी कुछ हट कर करने की धुन सवार रहती है। इसके मूल में राजस्व में किसी प्रकार की कमी के बिना कर के ढांचे को सरल बनाने का सोच काम करता है। इसे कर प्रणाली को उसकी अपनी बाधाओं से मुक्त करके सरल, विस्तृत और प्रभावी बनाने का एक स्वाभाविक उपक्रम भी कहा जा सकता है।

लेकिन भारत में केन्द्रीकृत शासन की सबसे बड़ी पैरोकार भाजपा का जीएसटी की तरह की एक केंद्रीभूत कर-प्रणाली की ओर हमेशा अतिरिक्त आकर्षण रहा है। इसीलिये जीएसटी के बारे में हमारे यहां सोच की शुरूआत भी सन् 2000 में हुई, जब केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व की एनडीए सरकार थी।

इस विषय का सबसे खराब पहलू यह रहा कि वाजपेयी ने इसके लिये जिस उच्च क्षमतावान कमेटी का गठन किया था, उसके अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री असीम दाशगुप्त को चुना और वामपंथ ने इसे स्वीकार भी लिया।

असीम दाशगुप्त ने शुद्ध रूप से एक कर अधिकारी के पेशेवाराना अंदाज में इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया। इसके राजनीतिक पहलू की पूरी तरह से उपेक्षा की गई।

बाद में यूपीए सरकार के काल में भी लंबे दस सालों तक इस पर चर्चा जारी रही। सर्व-सम्मति से इसका एक मसौदा तैयार किये जाने के बावजूद इस पर अमल के मामले इस कमेटी को इतने प्रकार की दिक्कतें दिखाई देने लगी कि उस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका। अब तक चली आ रही एक कर प्रणाली को पूरी तरह से एक नई कर प्रणाली से स्थानांतरित करना किसी को भी आसान काम नहीं लगा था।

देखते-देखते चौदह साल बीत गये। जीएसटी महज चर्चा का विषय ही बना रहा, इसे अमल के लायक व्यावहारिक रूप देना मुमकिन नहीं हो पाया।

इसके बाद ही, सन् 2014 में महाबली मोदी जी सत्ता पर आ गए। इनके लिये दुनिया का कोई काम कठिन नहीं था, बस 'संकल्प' लेने की जरूरत थी ! ये फाइलों से, विषय की बारीकियों के अध्ययन से नफरत करने के संस्कार के साथ आए थे, जो दरअसल किसी के भी महाबली होने की एक बुनियादी शर्त भी होती है !

2014 से 2016 तक के दो साल तो महाबली ने दुनिया की सैर करने की अपनी दमित इच्छा को पूरा करने में गुजार दिये। फिर 2016 के अंत में उन्हें देश का होश आया और वे चुटकियों में इस देश की सब समस्याओं का इलाज कर देने के काम में लग गये।

2016 के नवंबर में नोटबंदी की। वह काम क्यों किया, इसे वे खुद आज तक किसी को साफ शब्दों में नहीं बता पाये हैं। हर बीतते दिन के साथ हमने नोटबंदी के उद्देश्यों के बारे में उनकी नयी-नयी बातों को सुना। भारी तूफान उठा, लोग मर गये, करोड़ों कंगाल हो गये, अर्थ-व्यवस्था ठप हो गयी। और जो कुछ होता गया, मोदी जी प्रकारांतर से उसे ही अपना उद्देश्य बता कर हंसते चले गये !

खैर, आज जब हम इस पर बात कर रहे हैं, नोटबंदी ने भारत को सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं दिया है, इसे मोदी के कुछ खास भोंपुओं के अलावा हर कोई एक स्वर में स्वीकारता है।

नोटबंदी के झटके अभी चल ही रहे थे कि मोदी ने बिना कुछ सोचे-समझे, दूसरा उससे भी घातक कदम उठा दिया। जीएसटी को जैसे-तैसे लागू करा दिया। जो बात 17 सालों से अटकी हुई थी, मोदी ने चुटकी बजा कर उसे अमली जामा पहना दिया। 30 जून की रात के बारह बजे संसद का एक विशेष सत्र आयोजित करके भारी आडंबर के साथ इसे इस प्रकार लागू किया गया मानो यह भारत की एक और आजादी की घोषणा की रात हो !

'एक देश, एक कर' - जिस बात पर संसद में आधी रात को भूतों की तरह का जो जश्न मनाया गया, लागू करने के वक्त ही यह साफ हो चुका था कि इसी एक बात का इस पूरे फसाने में कोई स्थान ही नहीं था। इसमें न एक राष्ट्र था और न एक कर ही। पेट्रोलियम पदार्थों, बिजली, शराब और रीयल इस्टेट की तरह के सबसे अधिक राजस्व पैदा करने वाले चार प्रमुख क्षेत्रों को जीएसटी से बाहर रखा गया। अर्थात इन चारों चीज़ों पर प्रत्येक राज्य में करों की दर अलग-अलग होगी जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्ज़ी से तय करेगी। अर्थात्, 'एक राष्ट्र' का दावा कोरा धोखा था। यही हाल 'एक कर' के दावे का था। इसमें भी शुरू में ही कर की दरों के सात स्लैब सामने आए - 0%, 0.25%, 3%, 5%, 12%, 18% और 28% ।

उसी समय सरकार की ओर से सरासर झूठ बोला गया कि आगे इन सब स्लैब्स को कम करके एक अथवा दो तक सीमित कर दिया जायेगा। इसके विपरीत सचाई यह रही कि इसमें अधिकतम 28 प्रतिशत की दर को बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की व्यवस्था कर दी गई।

इसके अलावा आज जिस चीज पर जितना प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, कल उसे बदल कर दूसरे स्लैब में नहीं डाला जायेगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं रही। 30 जून की आधी रात के चंद घंटों पहले तक कुछ चीज़ों को एक स्लैब से निकाल कर दूसरे स्लैब में डाला गया। और तभी यह साफ हो गया था कि कर की दरों के मामले में आगे भी इसमें पूरी अराजकता की स्थिति बनी रहेगी।

अब जीएसटी को लागू किये लगभग तीन महीने बीत गये हैं, फिर भी एक आदमी यह नहीं कह सकता है कि यह वास्तव में लागू हो गया है ! पहले की अप्रत्यक्ष कर-प्रणाली खत्म हो गई लेकिन उसकी जगह प्रकृत अर्थ में नई कर प्रणाली लागू नहीं हुई है ! इससे कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यह भारतीय राज्य की राजस्व प्रणाली के साथ कितना बड़ा मजाक चल रहा है। जल्दबाज़ी में इन्होंने मूल मसौदे को बेहद जटिल बना दिया था। 2013 तक भी इसका मूल मसौदा बहुत सरल और दुनिया के दूसरे देशों में जीएसटी के अनुरूप था। लेकिन इन्होंने हड़बड़ी में, जिसने जो राय दी, उसे स्वीकार कर लागू कर दिया। नाना मुनियों ने मिल कर इस खेल को बिगाड़ा दिया।

आज इस सरकार के पास जीएसटी को वसूलने की कोई प्रभावी निष्छिद्र व्यवस्था नहीं है और करदाताओं के पास भी यह कर चुकाने की सही जुगत नहीं है। सरकारी खजाने में रुपये जमा तो किये जा सकते हैं, लेकिन इसमें इनपुट क्रेडिट नाम की जो चीज है, जिससे सरकार को उनको रिफंड करना है, उसका कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है।

ऊपर से सभी राज्य सरकारें अपने खर्च चलाने के लिये पूरी तरह से केंद्र सरकार की मुखापेक्षी हो गई है। अभी से, जब राजस्व में कोई कमी नहीं आई है, राज्य सरकारें अपने संकट के ताप को महसूस करने लगी है। आगे के संकेत साफ तौर पर राजस्व में गिरावट की बात कह रहे हैं। इसीलिये सबको अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई पड़ रहा है।

जीएसटी से जुड़े सभी पहलुओं को समझ कर पिछले जुलाई महीने में ही हमने लिखा था कि "यह जीएसटी चल नहीं सकता, जैसे नोटबंदी नहीं चली। मुझे ख़ुद यह कहना राज्य को चुनौती देने की तरह की धृष्टता लगती है, लेकिन जितनी गहराई में जाकर जीएसटी के विषय को देखता हूँ, उतना ही साफ तौर पर लगता है कि जिस रूप में अभी इसे लागू किया गया है, इस पर सही अर्थों में अमल हो नहीं पायेगा। आज के इसके बहु-स्तरीय और विविध दरों के स्वरूप में यह पूरी योजना भारतीय अर्थ-व्यवस्था को चरम अराजकता की सौग़ात देकर चंद सालों में ही दम तोड़ देगी। इसके अस्पष्ट और जटिल ढाँचे के कारण ही जीएसटी से जुड़े मामलों-मुक़दमों का ऐसा अंबार लगेगा कि कोई भी राज्य उन्हें संभाल नहीं पायेगा। मुकदमें जीएसटी पंचाट से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में भरे रहेंगे।

"इसमें लेन-देन के हर हिसाब की जाँच राज्य और केंद्र, दो स्तर पर अलग-अलग होने की बात कही गई है। इससे हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहेगा कि केंद्र और राज्य के अधिकारियों की एक ही मामले में अलग-अलग राय हो। नौकरशाही स्वेच्छाचारी ढंग से काम करेगी लेकिन उसके स्वेच्छाचार की भी सीमा होगी ! जब इस अराजकता के चलते राज्य के राजस्व पर बन आयेगी तो इस पूरी व्यवस्था पर ही पुनर्विचार की ज़रूरत पैदा हो जायेगी। लेकिन तब तक अर्थ-व्यवस्था अधमरी हो गयी होगी। मोदी जी भारत के आर्थिक इतिहास में तुग़लक़ के नये संस्करण के तौर पर ही याद किये जायेंगे।"

कहना न होगा, तब से अब तक तीन महीने भी नहीं बीते हैं, जीएसटी को लेकर वे सारी समस्याएँ सर उठाने लगी है जिनका हमने तब जिक्र किया था। केंद्र और राज्यों के बीच तनाव के भी संकेत मिलने लगे हैं क्योंकि आशा के अनुरूप राजस्व न आने के कारण राज्यों को यह डर सताने लगा है कि केंद्र क़रार के अनुसार उन्हें उनके हिस्से की राशि देगा या नहीं। पंजाब सरकार ने तो अभी से अपना रोना शुरू कर दिया है। अभी से जीएसटी रिटर्न को भरने की अलग-अलग समय सीमाएँ तय करने की बात की जाने लगी है जिससे कई नई जटिलताएँ पैदा होगी। ख़रीदार और विक्रेता व्यापारियों के रिटर्न का मिलान न हो पाने के कारण व्यापारियों को मिलने वाले इनपुट क्रेडिट की राशि को निर्धारित करना असंभव हो जायेगा, जो पूरी जीएसटी प्रणाली के लिये किसी मौत की घंटी से कम बात नहीं होगी।

जीएसटी के चलते आने वाले दिनों में भारत सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर सारी दुनिया के सामने उसकी जो फ़ज़ीहत होने वाली है, इसकी आज कल्पना करके सिहरन होती है। इसका कुल राजस्व संग्रह पर इतना बुरा प्रभाव पड़ेगा कि यह जल्द ही 'जैनरल स्ट्राइक आफ टैक्सेस' (करों की आम हड़ताल) कहलाने लगेगा। देश के कोने-कोने से इसके खिलाफ तीव्र प्रतिवाद के स्वर उठने लगे हैं। रिटर्न भरने की दर में भी गिरावट के संकेत मिल रहे हैं।

अब यह पूरे निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि जीएसटी को वर्तमान संरचनात्मक कमज़ोरियों के साथ ढोना किसी सरकार के वश में नहीं है। यह हमेशा सरकार के गले में अटकी हड्डी ही रहेगा।
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