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रामधारी सिंह दिनकर जयंती: - सिंहासन ख़ाली करो की जनता आती है...

रामधारी सिंह दिनकर जयंती: - सिंहासन ख़ाली करो की जनता आती है...
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श्वानों को मिलते दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं

मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं...

आजादी से पहले और उसके बाद सालों तक जिनकी कविता गरीबों-मजलूमों की आवाज बनकर गूंजती रही. उन्हीं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज जयंती है. कमजोरों के हक में खड़े होकर व्यवस्था की खिलाफ आवाज उठाने के इस तेवर ने दिनकर की कविताओं को जनता की जुबां पर ला दिया. ऐसे क्रांतिकारी रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरिया घाट में हुआ था.

दिनकर अभावों में बचपन गुजारने के बाद समाज में फैली अव्यवस्था को लेकर हमेशा क्षुब्ध रहे. व्यवस्था के प्रति यही आक्रोश उनकी लेखनी में उतरी और जनजन की आवाज बनी...

धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,

एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी

उनकी प्रखर लेखनी से अंग्रेज इस कदर घबराते थे कि उनकी रचनाओं पर पांबदी तक लगा दी गई थी. गांधीवादी और अहिंसा के पक्षधर होते हुए भी 'कुरुक्षेत्र' में वह कहते नहीं हिचके कि...

कौन केवल आत्मबल से जूझकर, जीत सकता देह का संग्राम है, पाशविकता खड्ग जो लेती उठा, आत्मबल का एक वश चलता नहीं

हिंस पशु जब घेर लेते हैं उसे, काम देता है मनुज का बलिष्ठ शरीर ही

अधिकार प्राप्ति के लिए उन्होने खड्ग उठाने को भी सही ठहराया...

न्यायोचित अधिकार मांगने

से न मिलें, तो लड़ के,

तेजस्वी छीनते समर को

जीत, या कि खुद मरके

दिनकर की वीर रस में डूबी कविताओं के बगावती तेवर अंग्रेजों के लिए शोला था. वहीं तेवर आजादी के बाद देश की आवाज बन गया और रामधारी सिंह दिनकर बन गए राष्ट्रकवि. गुलामी के दौर में दिनकर की लेखनी से अंग्रेजों के खिलाफ आग निकलती थी. तो आजादी के बाद भी सत्ता की बेरुखी पर चुप नहीं बैठे और खुलकर लिखे

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है

ज्वलंत क्रांतिकारी लेखनी के अलावा दिनकर जी का एक पक्ष मर्मस्पशी कवि का भी था. ये सब मिलकर ही रामधारी दिनकर को जनजन का कवि बनाता है जो जिनकी लेखनी आज के दौर में भी उतनी प्रासंगिक है जितनी उस दौर में थे. राजनीति हो या दर्द बिन दिनकर की पंक्ति के पूरी नहीं होती.

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