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लेख

वैश्वीकरण का संदर्भ और पर्यावरण दिवस- डॉ. मनीष पाण्डेय

पर्यावरण वैश्विक चिंता का विषय है. पर्यावरण वस्तुत: अपनी प्रकृति में ही वैश्विक है क्योंकि इसमे हो रहे क्षरण के दुष्प्रभाव को राष्ट्र की सीमाओं से बांधा नहीं जा सकता. सही मायने में विश्व-पर्यावरण की समस्या का केंद्रबिन्दु नगर है. पर्यावरण की आज लगभग सारी समस्याएँ नगरीय विकास से जुड़ी हुई हैं.

यूएनओ की एक रिपोर्ट (1999) के मुताबिक सन 1960 में संसार की एक तिहाई आबादी शहरों में रहती थी. 1999 तक यह 47 प्रतिशत हो गया और अनुमान के हिसाब से सन 2030 में संभावना है कि दुनिया की 61 फ़ीसदी जनसंख्या शहरों की निवासी हो जाए. दुनियाभर में वैश्वीकरण की मजबूत हुई अवधारणा की वजह से बहुत हद तक उनकी समस्याओं पर भी उसी अनुरूप चिंतन प्रारम्भ हुआ है. अब यह समझा जाने लगा है कि पृथ्वी हम सब की है और यदि कहीं भी इसकी क्षति हो रही है तो उससे हम सबका सरोकार है. पृथ्वी के रख रखाव की ज़िम्मेदारी हमसब की है. हम स्वयं तो इस पृथ्वी पर सुख से रहना चाहते हैं

साथ ही यह भी चाहते हैं कि अगली पीढ़ी भी इसी अनुरूप जीवन जिये. तथाकथित विकास की प्रक्रिया में मनुष्य ने बहुत बर्बरता से प्रकृति का दोहन किया है. हवा, पानी, जमीन, जंगल, पहाड़, नदियां आदि सबको विकास ने छेड़ रखा है. भारत समेत दुनियाभर के जंगलों और पहाड़ों को काटा गया है. वैश्वीकरण की यह विशिष्टता है कि यह स्थानीय को विश्व के साथ जोड़ती है. इसी अनुरूप भूमंडल के साथ हमारा पर्यावरण जुड़ता है. इसी सोंच के तहत संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन 1982 में संधारणीय विकास की अवधारणा पर ज़ोर दिया ताकि विकास के साथ-साथ पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके.

मानव पर्यावरण संबंधी संयुक्त राष्ट्रों के सन 1972 में स्टाकहोम में हुए सम्मेलन ने वर्तमान और भविष्यगत पीढ़ियों पर पर्यावरण के प्रभाव से संबन्धित कई अध्ययनों और प्रतिवेदनों के लिए रास्ते का निर्माण किया है. इस सम्मेलन में वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने संबन्धित चिंता व्यक्त की गई. इसी वर्ष 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन के द्वारा ही सुनिश्चित हुआ कि 5 जून को पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता लाने के लिए विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाए. इसी के तहत 5 जून 1973 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया. इसी की अग्रिम कड़ी में 1980 के दशक के शुरुआत में जर्मनी और उत्तर अमेरिका में हरी राजनीति या हरियाली परिस्थितिकी अथवा हरा आंदोलन के विकास ने भारत समेत समूचे विश्व में ‘हरा तानाबाना’ (ग्रीन नेटवर्क) और ‘हरा आंदोलन’ (ग्रीन आंदोलन) के गठन को प्रोत्साहन दिया.

पिछले कुछ दशकों में एक तरफ जहां विकास की आँधी में प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन हुआ वहीं दूसरी तरफ मनुष्य की बाजार संचालित नवीन जीवन शैली पूरी तरह प्रकृति के विपरीत हो गई. अब ऐसी परिस्थिति में पर्यावरण का प्रभावित होना अवश्यम्भावी हो गया जिसे रोकने में काफ़ी हद तक मनुष्य भी बेबस हो गया है. आदि काल से ही मानव एवं प्रकृति का अटूट बंधन रहा है. सभ्यता के विकास में प्रकृति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

प्रारम्भिक चरण में मनुष्य प्रकृति के साथ अनुकूलन करने का प्रयास करता है, और इसके पश्चात वह धीरे-धीरे प्रकृति में परिवर्तन करने का प्रयास करता है. परंतु, अपने विकास के क्रम में मानव की बढ़ती भौतिकतावादी महत्वाकांक्षाओं ने पर्यावरण में इतना अधिक परिवर्तन ला दिया है कि मानव और प्रकृति के बीच का संतुलन ही भयावह ढंग से बिगड़ गया है. इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ जल, थल और वायु प्रदूषण बढ़ा बल्कि ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि जैसी समस्याएँ भी अपना विकराल रूप दिखा रही हैं. प्रकृति के दोहन, कूड़े-कचरे के प्रवाह, वनों की कटौती, जहरीली गैसों के प्रभाव आदि से पूरा परिस्थितिकी तंत्र ही संकट में आ गया है.

पर्यावरणविद जयंत बंधोपाध्याय और वंदना शिवा ने अपने अध्ययनों के आधार पर लिखा है कि स्वतंत्र भारत में विकास की प्रक्रिया को पूरी करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के खिलाफ पारिस्थितिकी आंदोलनों में वृद्धि हुई है. यह दोहन बाजार शक्तियों द्वारा चालित है. आज पर्यावरण पर न सिर्फ़ सरकारें चिंतित हैं वरन प्रभावित जन भी आज लगातार आंदोलनरत हैं. उत्तर-आधुनिक समाजशास्त्री उलरिच बेक चेतावनी देते हैं कि जिस समाज में हम जी रहे हैं, वह ख़तरे से भरा है. इसमे पर्यावरण विस्फोट कब हो जाए कह नहीं जा सकता. ओ नैल तो इसके लिए वैश्वीकरण को ही जिम्मेदार मानते हैं और पर्यावरण के संत्रास को वैश्वीकरण का संत्रास कहते हैं.

इसके बाद भी जिस प्रकार की जागरूकता और सामूहिक प्रयास आज दिख रहा है, उससे विश्वास होता है कि पर्यावरण की समस्याओं से निपटा जा सकता है और सजग प्रयास से हम विकास और अपनी पर्यावरण विरोधी जीवन शैली को अनुशासित कर सकते हैं. आज पर्यावरण की समस्याओं पर हमारे जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बनाई जा रही विकास योजनाओं पर गंभीरता से विचार करने पर लगता है कि हम पर्यावरण संरक्षण एवं विकास का सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं. हम पर्यावरण के साथ देश का ठोस विकास कर सकते हैं और वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के क्षरण को रोक सकते हैं. इस हिसाब से पर्यावरण दिवस वास्तविकता में सार्थक साबित हो सकता है.
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