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अम्मा के दाँत.... : रिवेश प्रताप सिंह

अम्मा के दाँत.... : रिवेश प्रताप सिंह
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"अम्मा की पेंशन अभी आई या नहीं?" पुष्पा ने बर्तन माजते हाथों को रोककर पति महेश से पूछा ।
"कल तक तो नहीं आयी थी, फिर जाता हूँ किसी दिन" महेश अखबार से नजर उठा कर बोले।
"आज महीने के सात तारीख़ हो गई! हर महीने दूसरी या तीसरी तारीख़ में पैसा खाते में आ जाता था, जरा देखिए तो क्यों नहीं आ रहा!"
"तुम्हारे कहने से तीन बार जा चुका हूँ बैंक" महेश ने झुंझलाकर कहा। "अभी कल ही गया था, कल तो मैनेजर मेरे ऊपर, पूरा चिढ़ गया और कहा अगर सोमवार को पेंशन नहीं आती है तब बैक में घुसिएगा.. बड़ा बद्तमीज़ बैक मैनेजर आया है। वैसे सोमवार कौन बीस दिन है ? आज शुक्र..दो दिन बाद सोमवार ! देख लेगें जाके बैंक" महेश ने पुष्पा को तसल्ली दिलाई।
"अच्छा जल्दी खाना निकालो ! ड्यूटी पर लेट हो जाऊँगा।" महेश तख्त पर पुराना अखबार बिछाकर बैठ गये खाना खाने की मुद्रा में।
पुष्पा बर्तनों को छोड़ खाना परोसने पलटीं तभी महेश ने पूछा "वैसे तुम्हें कितने पैसों की जरूरत है कि अम्मा की पेंशन अगोर रही हो?"
"क्यों आपको नहीं मालूम कि अबकी हफ्तें हमको मायके जाना है। मायके जायेंगे तो ऐसे ही नहीं न चलें जायेंगे?"

"अरे ! मायके जाने में कितनी व्यवस्था करनी है तुम्हें ? कपड़ा- लत्ता तो है ही ! और खरीदना क्या है भला?"

"आप मर्दों को क्या पता औरतों का टकसार, साल भर में एक बार अपनी माँ के पास जाती हूँ । कम से कम माँ को एक साड़ी, पिछली बार मनोज के बच्चे को कुछ दे भी न पायी थी। सोचिए , भौजाई क्या सोचेंगी भला कि कैसी बुआ हैं? उसके बाद अपना खर्च अलग ! गुड़िया के लिये एक सूट भी खरीदना है। सुनने में आ रहा है कि वहां गांव में एक शादी है वहाँ रहेंगे तो जाना पड़ेगा ही.. मेकअप के कुछ समान खत्म हो गये हैं । यहाँ हैं तो चल जाता है , मायके में किससे माँगती फिरुंगी?"
महेश ने एक लंबी सांस खीचीं और धीरे से कहा- "पुष्पा क्या तुम्हें मालूम नहीं कि इस बार के पेंशन में अम्मा का पत्थर का दाँत लगवाना है! पिछले दो बार की पेंशन आयी और तुम्हारी ही फरमाईशों में उड़ गयी।"

"मेरी फरमाईशों में ? क्या सब पैसा मैं अपने ऊपर खर्च करती हूँ। गृहस्थी के इतने खर्चे हैं कि आपको क्या पता ?
आपको तो केवल ड्यूटी से मतलब रहता है।"

"ठीक बात है लेकिन पिछले महिने तुम्हारे कान की बाली की इतनी क्या जरूरत थी ? अगर तुम मान गयी होती तो पिछले पहिने ही अम्मा का दाँत लगवा देता । लेकिन तुम अपने आगे किसी की सुनो तब न....!"

"अच्छा तो तुम्हारा मतलब है कि हम मायके ऐसे ही पहुंच जायें... हाथ झुलाते ! हमारा कोई शौक नहीं?"

"शौक! अरे यार, बेचारी अम्मा पिछले ढाई महिने से खिचड़ी खाकर और दाल का पानी पीकर रह रही है। तुमने देखा कि कितनी दुबलाती चली जा रहीं हैं! तुम्हें तो यह कहना चाहिए कि पहले अम्मा का दाँत लगवाइए। लेकिन तुमको तो अपने शौक की पड़ी है।"

"तो क्या करें बताइए ? आपके बाइस सौ तनख्वाह में गुजारा होता नहीं कोई केतना समझौता करे!"

"पुष्पा, एक बात समझो ! बाबूजी के गुजरने के बाद अम्मा को जो पेंशन मिलती है वह उन्हीं के भरण-पोषण के लिए। लेकिन सोच कर बताना अम्मा कभी पेंशन की बात करती है ? उसका अपना खर्चा दो सौ रुपये महीने से भी अधिक नहीं होगा। सब पैसा तो तुम्हीं न खर्च करती हो। बेचारी पिछले दो महीने से इस आस में बैठी है कि अबकी उसका दांत लग जायेगा। गांव में भी लोग उससे पूछते होंगे तो हर बार उसे शर्माना पड़ता होगा।"

"तो क्या हुआ कि दाँत नहीं लगा? कौन बुढ़ौती में पाथर चबाने की जरुरत है ? एक महीना और खिचड़ी खा लेंगी तो क्या बिगड़ेगा भला! एही गांव में केतनी बूढ़ियां हैं जो बिना दांत लगवाये नब्बे- सौ की उमर में टनटन घूम रहीं हैं। और हाँ ! उनकी पेंशन हम खर्च करते हैं तो उनकी देखभाल कौन करता है ? सुबह से सांझ तक उनका मामूली टकसार है ? आपको क्या पता, आप तो अपनी ड्यूटी बजाने चले जाते हैं..." पुष्पा अब अपमानित करने के तेवर में थीं , महेश वहाँ से उठे और चुपचाप ड्यूटी निकल गये । मन बेचैन हो उठा लेकिन करते भी क्या ? क्योंकि महेश बखूबी जानते थे की पुष्पा वही करेंगी जो उनका मन करेगा।

सोमवार का दिन भी आ गया महेश दोपहर को ड्यूटी से समय निकाल कर बैंक से पैसा निकाल लाये और सांझ को ड्यूटी खत्म करके साईकिल से घर पहुंचे। घर पहुंचते ही गुड़िया ने मम्मी को आवाज़ लगायी "मम्मी पापा आ गये" पुष्पा और गुड़िया पहले से ही बाज़ार के लिये तैयार थे । बस महेश को एक गिलास पानी देने और एक कप चाय बनाने का उपक्रम शेष था ।

महेश के लिये अब तर्क और हुज्जत का कोई अर्थ नहीं था। वो चुपचाप अपनी स्कूटर पोछने के लिये उठे। महेश की स्कूटर बेहद आरामतलब ...महीने में एक दो बार ही स्टार्ट होती , वह भी तब जब महेश को कस्बे में बाज़ार करने जाना होता।
दस मिनट चाय पानी पीने के बाद अब घर पर रुकना मुनासिब न रहा । महेश ने बुझे मन से स्कूटर स्टार्ट किया और पुष्पा और बिटिया को बिठाकर निकल पड़े कस्बे की तरफ़ । रास्ते भर केवल इसी गणित का कयास लगाते रहे कि 'यदि उनकी एक माह की तनख्वाह में अम्मा का एक दांत का सेट नही आता .. और अम्मा की पेंशन में साड़ियों-कपड़ों के खर्च के बाद भी दांत लगवाने की गुंजायश है... तो एक पेंशन इज इक्वल टू कै तनख्वाह?" मन में कहीं न कहीँ यह भी चल रहा था की 'जरूर पुष्पा को अम्मा का ख्याल होगा। थोड़ी बहुत भी रियायत हो गयी तो कुछ व्यवस्था करके अम्मा का दाँत जरूर लगवाऊंगा..' इसी उधेड़बुन में कब बाज़ार आ गया , महेश को पता भी न चला।

दुकान में पहुंचने के बाद तो रंगबिरंगी साड़ियाँ और दुकान के चकाचौंध ने महेश की रही-सही हिम्मत भी तोड़ दी। आधे घंटे के भीतर सेल्समैन ने साड़ियों का अम्बार लगा दिया। पुष्पा के सामने साड़ियों का इन्द्रधनुष और सेल्समैन कार्यकुशल चतुराई के सामने महेश की मायूसी एक किनारे स्टूल पर जगह लेकर बैठ गई । हाँलाकि पुष्पा ने एक दो साड़ियां महेश को दिखाने का प्रयास किया लेकिन महेश का ध्यान साड़ियों खूबसूरती से ज्यादा उसके दाम पर अवस्थित था। पुष्पा के दो-तीन बार पूछने पर महेश ने तनिक खिन्नता से कहा "अरे! मेरी पसंद और इच्छा का क्या मतलब जब तुम्हें सब काम अपने ही मन का करना है!"
दुकानदार ने आवभगत में बाज़ार से चाय बिस्कुट मंगवाया। महेश ने ज्यों ही बिस्कुट थामा तभी उसके सामने माँ का चेहरा नाचने लगा। सोचने लगे कि 'अम्मा बिस्कुट भी अपने मसूड़े से नहीं चबा पाती..बिना पानी या चाय में डुबोये ! पिछले महीने एक पड़ोसी विंध्यांचल दर्शन करके लौटे थे तो प्रसाद लाये थे । अम्मा ने दो इलायचीदाने माई को मन में सुमिरन करके मुंह में डाले तो फिर उन दानों को मसूड़ों में घुमा-घुमाकर घुलाने की विद्रूप कोशिश करने लगीं । दांतों का बैरियर न होने के नाते घुले हुये इलायचीदाने का सफेद लिसलिसा तरल बहकर होठों के कोर से बहने लगा । महेश ने झपटकर अपने गमछे से अम्मा का मुंह पोछ दिया कि कहीं पड़ोसी न देख लें । अचानक महेश को लगा कि सामने बिस्कुट खाती गुड़िया की जगह अम्मा बैठी हैं और उनके होठों के कोरों से बिस्कुट घुलकर लिसलिसे द्रव्य की तरह बह रहा है । महेश को यकायक बड़ी तेज घबराहट हुयी । वो अपने गमछे को लेकर गुड़िया की तरफ झपटे और उसका मुंह पोछने लगे । दुकानदार , गुड़िया और पुष्पा .. तीनों हैरत से महेश की तरफ देख रहे थे ।
दो साड़ी और एक सूट पसंद करने के बाद महेश को यह अंदाज़ा लग गया , कि पेंशन के अड़तालीस सौ रूपये मे से अब इतने रुपए नहीं बचने वाले की इस महीने भी अम्मा का दांत लग पाये। क्योंकि दांत की बनवाई में भी तीन हजार रुपये से कम लगने को नहीं। अभी घर का पूरा खर्च भी बचा है। मायके जायेंगी तो कम से कम एक हजार रुपये माँगेंगी ही और कुछ छुटपुट बाज़ार तो अभी बची ही है। दुकानदान ने तेइस सौ का बिल काटकर काउंटर पर आगे बढ़ा दिया।
पूरी खरीददारी लगभग तीन हजार में निबटाने के बाद अब महेश के हाथ केवल अठ्ठारह सौ रुपये शेष बचे और माँ के दांत लगवाने की आशा बाज़ार में ही छूट गयी।
घर लौटते शाम के सात बज गये । पुष्पा रसोई और सुबह जाने की तैयारी में लग गयीं तथा महेश कुछ बेबस और कुछ तिलमिलाहट लिये ,एकांत में माँ से थोड़ा दूर जाकर बैठ गये। अम्मा अपना हाथ का पंखा लेकर हल्की रोशनी में लेटी थीं।

अगली सुबह आफिस जाते वक्त महेश ने पुष्पा और गुड़िया को बस में बिठाया और खुद अनमने भाव से ड्यूटी पर चल दिये। शाम को ड्यूटी से घर लौटते वक्त कुछ सब्जियां लेकर घर पहुंचे तो अम्मा अपनी खाट से उठकर महेश के पास चली आयीं। घर में दूसरा कोई था भी नहीं इसलिए अम्मा ने खुद यह जिम्मेदारी ओढ़ ली।
"बाबू, चाय बना दीं ?" अम्मा ने महेश से पूछा।
"नाई अम्मा , अबहिन चौराहे पर पिये हैं। तुहार पीये क मन हो त बना लs!"
"अच्छा त , एक-आध घंटा बाद बनाइब । दूनो जनीं पियल जाई।"
"आज खाना का बनाईं बाबू?" अम्मा महेश के तखत पर बैठते हुए कहा।
"कुछ नाई अम्मा , बस खिचड़ी बना दs .. ऊहै खाके सुत जाइल जाई ।" कहते हुए महेश नजर की नजर अपने आप झुक गई।

"खिचड़ी! अरे खिचड़ी कौन खाना है बाबू..? मरद कहीं खिचड़ी खालें ?? एतनी बड़ी रात होत बा , आधे राति खिचड़ी पच जाइ। भूखा जइब पूता !"

"अम्मा , तू त पिछले दू महीना से खिचड़ी खात बाटू. ! तू कइसे रहेलू , बतावs!"

"अरे , हमार कउन बात पूता.? हमके कौन बहरे काम करे के बा ? एहर त चली-चला क बेला बा पूताs ! अउर चलs अबकी हफ्ता त दांत लगी जाई ...त हमहूँ कुल खाना खाए लगब...!" अम्मा के मुख पर उम्मीद की एक चमक थी ,कि अब हर चीज़ का स्वाद मिलेगा ।
अम्मा के मुंह से यह बात सुनकर महेश का हृदय बैठने लगा । वो अम्मा को पकड़ कर बोले- "अम्मा , अबकी फिर पूरा महीना तुहके खिचड़िये खाये के पड़ी।" स्वर में लाचारी और याचना स्पष्ट ध्वनित हो रही थी ।

माँ , बेटे की बेबसी समझ गयी । खुद को सम्भालकर बोलीं- "त का भइल पूता ? काहें मन छोट करत हवs! एक महीना बाद दांत लग जाइ। कौन हमके ततवल चना चबाये के बा? तोहरे जिम्मे बहुत खर्चा बा बेटा..अबकी दुल्हिन भी नैइहरे गईल हs । ओहू क त कुछ सौक-सिंगार हवेs!"
महेश अम्मा का आत्मसंतोष देखकर टूट गये और अधीर होकर बोले "अम्मा तू आपन बैंक क पासबुक अपने पास रख्खल करs । हमरे बस क ना बा तुहार रुपया पैसा सम्भारल..।" और यह कहते ही महेश के आँखों से आंसू लुढ़क आये।
अम्मा तखत से खड़ी उठकर महेश के सिर के पास खड़ी होकर अपने आँचल से महेश का मुंह पोछते हुये बोलीं "जा पूता , तू त लइका झूठ बाट! काहें मन छोट करत हवं एतनी भर बात खातिर.?" इतना सुनते ही महेश बच्चे की तरह फफककर रोने लगे और अम्मा उनका माथा सहलाने लगीं ।

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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