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फिर एक कहानी और श्रीमुख "नगरकोट"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  नगरकोट
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फिरोजशाह तुगलक का कांगड़ा अभियान सफल हो चूका था। कांगड़ा राज्य का 'राय' उसके चरणों में पड़ा सन्धि के समस्त शर्तों को स्वीकार कर चुका था। किन्तु अभी तुगलक का मुख्य लक्ष्य अधूरा था। उसने अपने सेनापति को नगरकोट मंदिर पर हमला करने का आदेश दिया, और घंटे भर के अंदर तुगलक सेना प्राचीन दुर्गामंदिर में प्रवेश कर गयी। मंदिर प्रांगण में मात्र कुछ शीश मुड़ाये वेदपाठी ब्राह्मण थे, जिन्हें पल भर के अंदर मंदिर के खंभों से बांध दिया गया। तुगलक ने अपने दो सेनानायकों को संकेत किया, दोनों अपने अपने काम में लग गए। एक ने सैनिकों की सहायता से मंदिर में स्थापित ज्वालामुखी माता के विग्रह को छोटे छोटे टुकड़ों में तोडा, और दूसरे ने गोशाला में बंधी चार गायों को छोटे छोटे मांस के टुकड़ों में बदल दिया। फिर विग्रह के टुकड़ों को गोमांस में मिला कर छोटे छोटे थैलों में भरा गया, और इन थैलों को सभी पंडितों की गर्दन में लटका दिया गया। अब जुलुस का समय था। आगे आगे गले में गोमांस का झोला लटकाए पंडित थे, और पीछे उनपर कोड़े बरसाते तुगलक के सैनिक। पुरे नगर में जुलूस घुमाने के बाद जब तुगलक के मन को थोड़ी शांति मिली, तो सभी पंडितों के शीश काट दिए गए। नगरकोट उजाड़ हो गया था।
दस वर्ष बीत गए।
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काफिरों के मुंडो का पर्वत बना बना कर फिरोजशाह गाज़ी की पदवी ले चुका था। देश के हिन्दुओं पर सैकड़ो प्रकार के कर थोपे जा चुके थे, और सत्ता की बागडोर पूरी तरह उलेमाओं मौलवियों के हाथ में आ चुकी थी। हमेशा काफिरों के विरुद्ध सामूहिक अभियान छेड़े जाते, जिसमें मंदिरों को ध्वस्त किया जाता; हिन्दू स्त्रियों की शील लुटी जाती; पुरुषों का कत्लेआम होता और गांव के गांव मुसलमान बनाये जाते। तुगलक का यह अभियान शिया और अन्य गैर सुन्नी मुसलमानों के विरुद्ध भी उतनी ही क्रूरता से चलता था।
शिया मुसलमानों के विरुद्ध ऐसे ही एक अभियान का संचालन करता फिरोजशाह तुगलक का ज्येष्ठ पुत्र फतेह शाह, दो दिन पहले राज्य के दक्षिणी हिस्से में निकला था। दरबार में बैठा फिरोज अपने योग्य उत्तराधिकारी पुत्र फतेह शाह की प्रतीक्षा कर रहा था, कि दरबार में एक लंबा-तगड़ा पहाड़ी नौजवान गोद में एक लाश लिए आया। सबने देखा वह फतेह शाह की लाश थी। पागलों की तरह दौड़ कर तख्त से नीचे उतरता तुगलक चिल्लाया- कौन हो तुम? और किसने मारा शहजादे को?
नौजवान ने शीश झुका कर कहा- मैं खुदाबक्श! शियाओं के खिलाफ जंग में जब शहजादे फतेह शाह घिर गए तो मैंने इन्हें बचाने की बड़ी कोशिश की और लगभग सौ शियाओं की गर्दनें उड़ाई, पर शहजादे को बचा नहीं पाया। वे एक शिया लड़ाके की तलवार से शहीद हो गए।
फिरोजशाह फफक उठा। उसने बुढ़ापे में अपना उत्तराधिकारी खो दिया था।
बूढ़े फिरोज ने अपने मंझले बेटे जफर शाह को उत्तराधिकारी घोषित किया, और खुदाबक्श को सेना में ऊंची पदवी मिली। अब वह सदैव जफर शाह के साथ रहता था। पुत्र की हत्या से क्रुद्ध जफर अब शियाओं के विरुद्ध टूट पड़ा था। सेना सदैव गैर सुन्नी मुसलमानों पर कहर ढाती रहती, कुछ समय के लिए हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार कम हो गए थे। जफर शाह स्वयं ऐसे अभियानों में शामिल होता, उसे रक्त से नहाने में आनंद आता था।
एक दिन जफर शाह ऐसे ही एक अभियान पर निकलने की तैयारी में था, कि खुदाबक्श ने अर्ज लगाई- जहाँपनाह! हिन्दुओं को उनकी औकात बताये बहुत दिन हो गए। यदि आदेश हो तो आज मैं हिन्दू बस्ती की ओर निकलूं। शहजादे जफ़र को मेरी कोई जरूरत नहीं, वे तो अकेले ही "सरों की मीनार" बना सकते हैं।
क्रूर फिरोज और घमंडी जफ़र दोनों मुस्कुरा उठे। दोनों ने खुदाबक्श को इजाजत दे दी।
शाम को खून के लथपथ खुदाबक्श ने जब दरबार में प्रवेश किया तो जमीन पर जफ़र की लाश पड़ी हुई थी, और फिरोजशाह तुगलक उससे लिपट कर रो रहा था। उसने खुदाबक्श को देखा तो चिल्ला उठा- खुदा की राह में जफ़र भी शहीद हो गया खुदाबक्श! शिया लड़ाके मेरे दूसरे बेटे को भी खा गए। खुदाबक्श ने अपने मजबूत हाथों से बृद्ध शहंशाह को उठा कर गले लगा लिया और ढांढस बधाने लगा। गम के माहौल में किसी ने भी खुदाबक्श से उसके अभियान के बारे में नहीं पूछा।
फिरोजशाह अब टूट चुका था। उसने अपने छोटे बेटे मोहम्मद शाह को उत्तराधिकारी बनाया और खुदाबक्श को हमेशा उसके साथ रहने का आदेश मिला।
फिरोज अब और क्रूर हो चूका था। उसकी सेना सदैव निरपराधों का रक्त बहाती रहती थी। पर ज्यादा दिन नहीं बीते, एक दिन सुबह सुबह खबर उड़ी कि शहजादे मोहम्मद शाह रात को सोये तो सोये ही रह गए। सबने देखा, पसीने से भिगी मोहम्मद शाह की लाश पर चोट के कोई चिन्ह नहीं थे। दरबारी हकीम ने अनुमान लगाया- किसी बड़े खौफ ने शहजादे की जान ले ली है।
अब बृद्ध फिरोजशाह का कोई बेटा नहीं बचा था।वह चिड़चिड़ा हो गया था। हमेशा पागलों की तरह हरकत करता रहता। उसे न रात को नींद आती न दिन में चैन मिलता। उसके दिन घोर कष्ट में कट रहे थे।
दरबार में चर्चा आम हो गयी थी कि बादशाह खुदाबक्श को ही अगला बादशाह चुनेंगे। दरबारियों ने मन ही मन खुदाबक्श को अगला बादशाह मान लिया था।
एक रात बादशाह अपने कक्ष में पड़ा करवट बदल रहा था। उसके सारे रक्षक सो रहे थे। अचानक खुदाबक्श ने बादशाह के कक्ष में प्रवेश किया और उसके मुह पर एक जोर का तमाचा लगाया। बूढ़ा बादशाह भौंचक हो कर उसकी ओर देखता रह गया। खुदाबक्श ने बादशाह की आँखों में आँख डाल कर कहा- नगरकोट याद है फिरोजशाह?
बादशाह कांप उठा, वह खुदाबक्श की तरफ देखता रह गया। उसका सारा शरीर पसीने से भीग गया था। खुदाबक्श ने उसकी गर्दन पर तलवार रख कर कहा- मैं ज्वालामुखी मंदिर के मुख्य पुजारी का बेटा हूँ फिरोज, पहचान ले मुझे। तुम्हारे तीनों बेटों को मैंने मारा है।
फिरोज ने लड़खड़ाती आवाज में कहा- काफिर! तुम्हारी कौम तो किसी के साथ धोखा नहीं करती?
खुदाबक्श ने फिरोज की गर्दन पर तलवार का दबाव बढ़ा कर कहा- धोखा नहीं रे हत्यारे, दंड कह। तुझ जैसे क्रूर हत्यारों के लिए किसी भी तरह का व्यवहार पाप नहीं।
फिरोजशाह फिर बड़बड़ाया- झूठ न बोल गद्दार, तूने मुझसे ही नहीं अपने कौम से भी गद्दारी की है। तू पापी है।
खुदाबक्श मुस्कुरा उठा। बोला- अब पाप की परिभाषा तू तय करेगा रे राक्षस? क्रूर बाली को भगवान राम ने भी छिप कर मारा था और कालयवन के वध के लिए भगवान श्रीकृष्ण युद्ध छोड़ कर कायरों की तरफ भागे थे। तुझ जैसे राक्षसों के वध के लिए किया गया प्रत्येक व्यवहार पुण्य है।
खुदाबक्श ने तलवार को हवा में लहराया, पर नीचे गिराने की आवश्यकता नहीं रही। क्रूर तुगलक के प्राण भय से ही निकल गए थे।
दो दिन के बाद लोगों ने देखा- नगरकोट के उजाड़ मंदिर में युगों बाद एक युवा पुजारी मकड़ी के जाले साफ कर रहा था।
सदियां बीत गयीं। आज दिल्ली में तुगलक के नाम पर सड़कें हैं, पर पुजारी के बेटे का कोई नाम तक नहीं जानता।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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