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भूकंप और महात्मा गांधी – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

भूकंप और महात्मा गांधी  – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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1934 में नेपाल, बिहार तथा उत्तरी भारत में एक भीषण भूकंप आया था. उस समय उसकी तीब्रता 8.4 की थी. जिसमें अपार जन-धन की हानि हुई थी. जिसमे बिहार के सीतामढ़ी, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, पूर्णियां, चंपारण जिले में ही लगभग सात हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे. इन सभी जिलों के अधिकांश घर जमींदोज हो गये थे. उस समय भूकंप का केंद्र वहां से650 किलोमीटर दूर कोलकाता में था. हम गुलाम थे,हमारे मरने या जीने से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था. महात्मा गाँधी उस समय दक्षिण भारत की यात्रा पर थे, जब पत्रकारों ने तत्कालीन भूकंप पर उनकी प्रतिक्रिया चाही, तो उन्होंने मृतकों की आत्मा को शांति मिले, उनके परिवार वालों को इस संकट की घडी में उनका आत्मबल बढे, कह कर टिप्पड़ी की कि भूकंप मनुष्यों की करनी के फल हुआ करते हैं. इस प्रतिक्रिया ने भारत में तूफ़ान ला दिया, उस समय के सभी प्रतिष्ठित विद्वानों ने महात्मा गाँधी ने इस वक्तव्य का विरोध किया, अनेक लेख लिखे. बहुत भला-बुरा कहा. किन्तु इस आसमयिक आई आपदा के कारण महात्मा गाँधी दक्षिण भारत के कुछ आवश्यक कार्यक्रमों को निपटा कर भूकंप प्रभावित क्षेत्र में पहुचे, और राहत कार्य में जुट गये. जब बहुत हद तक प्रभावित लोगों को राहत पहुच गयी, उनके आप-पास रहने वाले लोगों ने उनके बयान की तरफ उनका ध्यान आकर्षित किया, साथ ही तत्कालील सभी प्रमुख विद्वानों के लेखों की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया, तो एक हलकी सी मुस्कान उनके चेहरे पर खेल गयी. फिर सहसा वह गंभीर हो गये और उन्होंने कहा कि कर्मों से फल से अभिप्राय मानवीय शोषण तो है ही. मैं इससे इनकार नहीं करता, पर इसके साथ-साथ मनुष्य अपने विकास के नाम पर प्रकृति से जो छेड़-छाड़ कर रहा है, उसे भी इसके साथ जोड़ लेना चाहिए.

यदि हम केवल हिमालय और उसके तराई वाले भागों पर ही अपनी दृष्टि डालें, तो उनके इस कथन की सत्यता हमें सही लगेगी. हिमालय और उसके आस-पास के जंगलों और प्राकृतिक संपदाओं का हमें इस हद तक दोहन कर लिया है कि भौगोलिकवेत्ता हिमालय के अस्तित्व को लेकर ही आशंकित हो उठे हैं. उसका अस्तित्व बचेगा कि नहीं, इस पर ही संकट आ चूका है. यह भूकंप उसकी भी चेतावनी है. हिमालय का अस्तित्व मिटते ही भारत के अस्तित्व पर एक बड़ा खतरा आएगा, फिर भारत विश्व के नक़्शे पर अपने को कैसे बचाएगा, उसके सामने चुनौती होगी. हिमालय के नंगा करने के कारण ही अब उससे निकलने वाली नदियाँ पूरे वर्ष सतत प्रवाहिनी रह पाएंगी कि नहीं, इस पर भी लोगों को आशंका होने लगी है. यदि बढ़ती गर्मी का यही हाल रहा तो पूरे हिमालय की बर्फ एक ही साथ पिघलेगी, और एक भयंकर,विनाशिनी बाढ़ का सामना करना पड़ेगा, जिससे गंगा और यमुना के किनारे बसे नगरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, तमाम ऐतिहासिक धरोहरें नष्ट हो जायेंगी, एक बार फिर हडप्पा और मोहनजोदरो और सिन्धु घाटी सभ्यता की कहानी दोहराई जायेगी. माउंट एवेरेस्ट पर १८ पर्वतारोहियों के मारे जाने की खबर है. आस-पास के आदिवासी या जिनकी जीविका हिमालय पर ही निर्भर है, वे कितने मारे गये होंगे, इसका तो आकलन भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ऐसे लोगों का संपर्क न तो आज की मीडिया से होता है, और न उनकी पहुच सरकारों से होती है. वे तो अपनी ही दुनिया में जीते हैं, और उसी में खुश रहते हैं. आज की आधुनिक दुनिया से दूरी बनाये रखते हैं, वे भी और हम भी.

कल आये भूकंप से नेपाल तो पूरी तरह तबाह हो गया, बिहार सहित उत्तर भारत में भी तबाही के मंजर यहाँ-वहां देखने को मिले. नेपाल में कई हजार लोग काल के गाल में समा गये, भारत में भी यह सख्यां सैकडे को छूते-छूते रह गयी. दिन न होता, कहीं यह भूकंप रात में आया होता तो, न जाने नेपाल और उत्तर भारत का क्या हाल होता. दिन होने के कारण पूरा विश्व समुदाय के बार फिर अपने सारे गिले-शिकवे मिटा कर अपनी-अपनी सामर्थ्य कार्य में जुट गया, स्थानीय लोग भी अपनी क्षमता के अनुसार लोगों को जान बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दिए. तब जाकर कुछ घायल और दबे लोगों की जीवन लीला को समाप्त होने से बचाया जा सका. अभी भी हजारों लोगों के दबे होने की आशंका है. भारत और नेपाल केवल एक दूसरे के पडोसी ही नहीं हैं, अपितु दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्ते भी हैं. इसी कारण दोनों देशों के सैकड़ों लोग एक दूसरे के यहाँ आते-जाते रहते हैं. भारत के प्रमुख योग गुरु बाबा रामदेव सहित तमाम भारतीय नेपाल में थे, बाबा रामदेव के बचने की सूचना है. किन्तु सभी भारतीय बच ही गये हों, इसकी अधिकारिक सूचना अभी तक नहीं प्राप्त हुई है.

यदि भारत के गाँव या नगरों के घरों पर, इमारतों पर, गगनचुम्बी इमारतों पर एक नज़र डालें तो यह बात साफ़ तौर मालूम होती है, कि हमने अपने लिए घर नहीं, अपितु कब्र खोद रखी है. कोई भी भवन भूकंपरोधी मानक पर खरा नहीं उतरता. यदि ८ या उससे ऊपर तीव्रता का भूकंप आ जाए, तो पूरा का पूरा भारत ही श्मशान में तब्दील हो जाएगा, ऐसा न हो, इसके लिए हर मनुष्य को खूब जागरूक होना पड़ेगा. अपने भवनों का निर्माण इस प्रकार करना पड़ेगा, जिससे वह कुछ तीव्रता के भूकंपीय झटकों को कुछ समय तक तो झेल सके, उस समय में लोग भाग कर अपने को सुरक्षित स्थान पर ले जा सकें. प्रकृति दोहन तुरंत बंद करना चाहिए, अवैध खनन तुरंत बंद कर देना चाहिए, बुन्देलखंड की सभी पहाड़ियों को तोड़ कर हमने बुंदेलखंड की प्राकृतिक सुन्दरता को ही नष्ट नहीं किया है, अपितु प्रकृति से छेड़-छाड़ कर एक अनाम, असामयिक प्राकृतिक आपदा को आमंत्रित भी कर दिया है, नदियों का तो अवैध खनन को हमने अपना नैतिक कर्तव्य मान लिया है, अधिकारियों की जेबे गरम करके कोई भी अवैध खनन कर सकता है. कोई रोक टोक नहीं है. वैज्ञानिकों ने भी इसकी चेतावनी दे दी है. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि पिछले पचास सालों में जो ऊर्जा पृथ्वी के अन्दर इकट्ठा हुई है, वह कहीं न कहीं से तो निकलनी ही है.

प्रकृति ने हमें चिंतन का एक और मौका दे दिया है, कालिदास की तरह हम जिस डाल पर बैठे हैं, उसे काट कर खुद का अस्तित्व समाप्त कर लेंगे या या पेड़ लगा कर एक बार फिर प्रकृति के सौन्दर्य को लौटा देंगे, और प्राकृतिक आपदाओं के आने पर विराम का चिह्न लगा देंगे. सब कुछ हमारे हाथ में है.

(यह लेख मेरी पुस्तक का अंश है। लेखक और जनता की आवाज की अनुमति के बगैर इसका प्रकाशन अवैध है। )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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