खाद्य पदार्थ, संयम और महात्मा गांधी – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
जैसे-जैसे मानव विकास के रथ पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ रहा है, उसके खान-पान में विविधता आती जा रही है. हर खाद्य पदार्थ की इतनी अधिक वेरायटी हो गयी है, कि क्या खाएं, क्या न खाए? ऐसा प्रश्न मन के भी सामने भी कौंध जाता है. अगर हर सजे थाल से एक-एक कवर भी उठायें, तो भी उसकी मात्रा इतनी हो जाती है, जितना दो दिन का भोजन. मशाले और तेल ने तो हद ही कर दी है. स्वाद के पीछे हम पागल की हद तक पहुँच गये हैं. स्वाद के लिए हर खाद्य पदार्थों के सत्व को भी मार देते हैं. उसमे ऐसा कुछ भी नहीं बचता, जिसे स्वादिष्ट कहा जा सके. शाकाहार और मांसाहार के नाम पर हम क्या-क्या खा रहे हैं, कभी खुद की तरफ देखते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि इसे यदि मांसाहारी जानवर भी जानेंगे तो लज्जित हो जायेंगे.
महात्मा गाँधी खान-पान को भी ईश्वरत्व से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि नशीले पदार्थों और सभी प्रकार के खाद्यों, विशेषत: मांस का सेवन न करने से आत्मा के विकास में बड़ी सहायता मिलती है. परन्तु यह स्वयं कोई साध्य नहीं है. बहुत से लोग, जो मांस का सेवन करते हैं और सबके साथ खाते-पीते हैं, परन्तु ईश्वर से डर कर रहते हैं. उस मनुष्य की अपेक्षा अपने मोक्ष के ज्यादा निकट हैं, जो मांस और कई दूसरी चीजों का धर्म भाव से परहेज तो रखता है, परन्तु अपने प्रत्येक कर्म द्वारा ईश्वर का तिरस्कार करता है. महात्मा गाँधी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मैं यह जरूर महसूस करता हूँ कि किसी मंजिल पर आध्यात्मिक प्रगति का यह तकाजा अवश्य होता है कि हम अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने साथ रहने वाले प्राणियों की हत्या बंद कर दें. जब मैं आपसे अपनी शाकाहारी सनक का जिक्र करता हूँ, तो मुझे गोल्डस्मिथ की सुन्दर पंक्तियाँ याद आती हैं, जिनका भावार्थ है :
जो पशु समूह घाटी में विचरण करते हैं, उन्हें मैं हत्या का दंड नहीं देता, क्योंकि जो सत्ता मुझ पर दया करती है, उससे शिक्षा लेकर मैं इन पर दया करता हूँ.
अनुभव् यह सिखाता है कि मांसाहार उन लोगों के लिए अनुकूल नहीं है, जो अपने विचारों का दमन करना चाहते हैं. परन्तु चरित्र निर्माण या इन्द्रिय जय में भोजन को अत्यधिक महत्त्व देना भी भूल है. आहार एक ऐसा प्रबल तत्व है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, परन्तु सारे धर्म का निचोड़ भोजन में ही मान बैठना, जैसा भारत में अक्सर किया जाता है, उतना ही गलत है, जितना भोजन सम्बन्धी सारे संयम की उपेक्षा करना और मनभाता खता-पीना.
महात्मा गाँधी का मानना है कि अहिंसा का मनुष्य के खाने पीने से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे कहते हैं कि अहिंसा केवल खाद्य-अखाद्य का विषय नहीं है. यह उससे परे है. मनुष्य क्या खाता-पीता है, इसका थोडा-बहुत महत्त्व है. महत्त्व उसके पीछे रहें वाले आत्म त्याग और आत्म संयम का है. खाद्य पदार्थों के चुनाव् में जितना भी संयम रखना हो, जरूर रखें. यह संयम प्रशंसनीय है, जरूरी भी है. परन्तु इसमें अहिंसा नाममात्र की है. मनुष्य भोजन के मामले में काफी छूट रखकर भी अहिंसा की जीती-जागती मूर्ति हो सकता है और हमारे आदर का पात्र हो सकता है. यदि उसका हृदय प्रेम से उमड़ता हो, दूसरे के दुःख से द्रवित होता हो, और राग आदि दोषों से मुक्त हो गया हो. इसके विपरीत वह मनुष्य खान-पान में जरूरत से ज्यादा सावधान रहते हुए भी अहिंसा से सर्वथा अपरिचित है. और दयनीय प्राणी है, जो स्वार्थ और विकारो का दास है, और कठोर हृदय है.
महात्मा गाँधी ने भी अपने जीवन में भोजन का अधिकतम त्याग किया. वे पूरे दिन में केवल पांच ही खाद्य पदार्थों का सेवन करते थे. जिसमे नमक भी सम्मिलित था. यह संकल्प उन्होंने पहली बार दक्षिण अफ्रीका और दूसरी बार हरिद्वार में लिया था. तबसे आजीवन उस व्रत का पालन करते रहे. इतना ही नहीं खाद्य पदार्थों पर उन्होंने एकाधिक प्रयोग भी किये. किस समय के लिए कौन सा भोजन उचित है. पेशे के अनुसार भी भोजन की मात्राओं पर उनका प्रयोग आज भी सटीक बैठता है. आज का विषय यह नहीं है, इस विषय पर फिर कभी लेखनी चलेगी.
(यह लेख मेरी किताब का अंश है, जनता की आवाज या लेखक की अनुमति के बगैर इसका उपयोग अवैधानिक है। )
- प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार