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किशोरावस्था, समाजवाद और अखिलेश – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

किशोरावस्था, समाजवाद और अखिलेश – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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यदि समाजवाद को समझना हो, तो किशोरावस्था को समझना जरूरी है। इस पृथ्वी पर रहने वाले हर मनुष्य को उम्र के इस पड़ाव से होकर गुजरना पड़ता है। उसके सुखमय, दुखमय जीवन की नींव इसी काल मे पड़ती है। इस अवस्था की तमाम छोटी-बड़ी घटनाएँ उसके पूरे जीवन को प्रभावित करती हैं। यदि हम इस अवस्था पर नजर डालें तो इस अवस्था मे वह मेधा के विकास के लिए जो कुछ जरूरी होता है, वह सब करता है। इस कड़ी मे विद्या, बुद्धि, विवेक का विकास होता है, जो भविष्य मे निर्णय लेने के लिए ज्ञान के रूप मे संचित होता है। इस अवस्था मे हर किशोर कुछ भी कर गुजरने की ताकत रखता है। वह किसी से दबता नहीं, जहां भी कहीं गलत होते देखता है, उसका मन विद्रोह कर बैठता है। इस दुनिया के अधिकांश किशोर उस लफड़े मे नहीं पड़ते, क्योंकि उनके सामने अपनी पढ़ाई एक प्रमुख कर्तव्य के रूप मे उसके पैरों को जकड़ लेती है। लेकिन इस अवस्था मे एक जोश होता है, कुछ भी कर गुजरने की तमन्ना होती है। आँखों मे सुखमय भविष्य की कल्पना होती है। अड़चनों से टकराने का माद्दा होता है। और इन सभी के बीच मे चेहरे पर एक चीर-परिचित मुस्कान बनी रहती है। अपने पिता की सही फटकार के अनुसार अपनी सोच और अपने पाठ को बदलने की सोच होती है, पर किसी भेदभाव के करने पर उनके खिलाफ जवाब देने का साहस होता है। गुरुजनों के प्रति सम्मान करने की भावना होती है। छोटी से छोटी और बड़े से बड़े उपदेशों को जीवन व्यवहार मे रूपान्तरण की शक्ति होती है।

समाजवाद भी ठीक इसी प्रकार का होता है। यह हमेशा किशोर ही बना रहता है। न तो वह प्रौढ़ होता है, और न ही उसमें बचपना होता है। किन्तु उसका मन बच्चे की तरह जरूर होता है, वह अपने मन मे किसी के प्रति दुराभव नहीं पालता है। यदि किसी कारणवश या परिस्थितिवश कुछ हो भी जाये तो उसे भुला देता है।

न ही वह प्रौढ़ो की तरह इतना कठोर हो जाता है कि वह झुकने को तैयार न हो, या झुकने पर टूटने की गुंजाइश हो । वह आवश्यकतानुसार कठोर भी हो जाता है, और आवश्यकतानुसार लचीला भी हो जाता है। लेकिन अपने अंदर के किशोरपना को मरने नही देता। इस दर्शन मे किशोरों की ही तरह हर गलत काम के विरोध करने की सीख होती है। तमाम अवरोध होने के बावजूद भी पीछे पैर न हटने का दिशा- निर्देश होता है। समाज के कल्याण के लिए कुछ भी कर गुजरने का जोश होता है। हमेशा सीखने की ललक होती है। गुरुजनों को सम्मान देना होता है और उनके हर अच्छे विचार के अनुसार को आत्मसात करके समाज कल्याण और सेवा भाव को और कारगर बनाना होता है। परिस्थितियों एवं हालातों के अनुरूप खुद परिवर्तन करने की भी सलाह समाजवादी दर्शन देता है। लेकिन वह समाज को लूटने वाले नेताओं को संरक्षण देने की बात कभी नहीं करता है ।

अब अखिलेश के जीवन, उनके कार्यों, निर्णयों का भी इस आधार पर विश्लेषण कर लेते हैं। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को बिना मेहनत के सब कुछ मिल गया। सब कुछ उनके पिता ने उन्हे दिया। चाहे वे सांसद बने हों, चाहे मुख्यमंत्री बने हों,चाहे वे एमएलसी बने हों, चाहे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हों, हमेशा नेताजी का आशीर्वाद उनके साथ रहा है। विषम परिस्थितियों मे भी उन्होने अखिलेश का ही साथ दिया है। इसलिये उनके पास समाजवाद के व्यावहारिक पक्ष की कमी हर क्षेत्र मे महसूस की जाती रही है। इसी कारण अपने मुख्यमंत्रित्व काल मे वे प्रदेश के अधिकारियों के ऊपर निर्भर होते चले गए। उनके पास ऐसे लोगों की फौज खड़ी होती चली गई, जिंहोने कभी उनके साथ सायकिल चलाई थी, जिंहोने कभी उनके साथ बैठ कर चाय नाश्ता कर लिया हो। ऐसे लोगों मे समाजवाद का अंश ही नहीं था। समाज कल्याण करने, सेवा भाव को विकसित करने की बात तो छोड़िए, ऐसे लोगों ने अपनी तिजोरियाँ भरनी शुरू कर दी। जिनके पास 2 वोट दिलाने की तथा नहीं थी, वे उनके अपने क्षेत्र मे आने के बाद उनके साथ घूमने लगे। जिनके पास सायकिल खरीदने की शक्ति नहीं थी, वे बड़ी-बड़ी और महंगी गाड़ियों से चलने लगे। इस तरह से नेता नही, दलालों की एक फौज विकसित हो गई और सेवभाव और समाज कल्याण की भावना से राजनीति मे आए थे, वे हाशिये पर चले गए। ऐसा नहीं है कि उनके करीबी सब दलाल हो गए, उनकी संख्या उँगलियों पर गिन सकते हैं। लेकिन हर जिले मे दो-चार लोग तो पैदा हो गए। समाजवाद के किशोरावस्था का जो दर्शन है, वह इसकी इजाजत नहीं देता है।

लेकिन अखिलेश यादव मे अपने किताबी ज्ञान को व्यावहार मे उतारने के अदम्य साहस है, जिसने उन्हे विकास कार्य करने को प्रेरित किया और वे विकास के लिए कुछ उल्लेखनीय कार्य कर सके। लेकिन यहाँ भी पोषण सामंतवादी ताकतों का ही हुआ। यदि हम उनके एक्सवे या मेट्रो को ही लें, एक्सप्रेस वे पर कौन चलेगा, जिसके पास महंगी गाडियाँ होगी, और मेट्रो का जो किराया नियत होगा, वह टेम्पो के किराए से महंगा होगा, इसलिए उसमें कौन चढ़ेगा, जो कम से कम 25 हजार से ज्यादा कमाता होगा। इसलिए उनकी ऐसी योजनयों से विकास तो हुआ, लेकिन उससे आम आदमी का बहुत ही कम भला हुआ। एक बात जरूर है कि इनहोने गांवों को जोड़ने के लिए जिन सड़कों का निर्माण किया, वह जरूर आम आदमी के उपयोग मे आ रही हैं, समाजवादी पेंशन या लोहिया आवास से भी गरीबों को लाभ मिल रहा है। खैर कुछ मिला कर इसे समाजवाद के कुछ तथ्यों पर कसूँ तो ठीक कहा जा सकता है। उन्होने दुनिया के साथ चलने की कोशिश की है,और आम आदमी के आँखों मे भी सपना भरने मे कामयाब हो गए हैं कि वह भी एक्स्प्रेस वे चल सकता है, मेट्रो मे सफर कर सकता है। लेकिन इसके बावजूद भी अखिलेश को अभी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। उनके पास अभी जो भीड़ दिख रही है, वह सत्ता की भीड़ है। जो युवाओं मे उन्माद दिख रहा है, वह सत्ता का उन्माद है। इस भीड़ का कोई भी व्यक्ति या युवा समाजसेवा करता नहीं दिख रहा है। यदि किसी की मदद कर भी रहा है, तो उसके बदले उससे पैसे ले रहा है। इसलिए अखिलेश को किशोरावस्था को अपने मे जिंदा रखने और समाजवादी विचारों को व्यवहार मे लाने की निरंतर कोशिश करनी होगी। तभी वे सपा के संस्थापक मुलायम सिंह की खीची हुई रेखा से को बड़ी कर सकते हैं।

( नोट :यह लेखक के किताब का अंश है, जनता की आवाज की अनुमति के बिना इस लेख या इसके किसी भी अंश के प्रकाशन करने की कुचेष्टा न करें, वरना आपके खिलाफ वैधानिक कार्रवाई की जा सकती है। )

- प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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