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हिंदी काव्य साहित्य में वैश्विक प्रेम की झलक – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

हिंदी काव्य साहित्य में वैश्विक प्रेम की झलक – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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हिंदी साहित्य की प्रमुख विधा काव्य प्रेम पर आधारित ही विधा है. जिस प्रकार प्रेम के विविध रूप होते हैं, ठीक उसी प्रकार काव्य के भी उतने ही रूप होते हैं. हर प्रेम का अपना एक वृहद आकार होता है, और वह अंतत: वैश्विक प्रेम पर ही जाकर अटकता है. यानी परिपूर्ण होता है. प्रेम संवेदन की वस्तु है, जब स्पंदन अपने चरम पर होता है, तब वैश्विक प्रेम की उत्पत्ति होती है. गागर में सागर भरने वाले प्रसिद्ध छायावादी कवि बिहारीदास ने भी अपने काव्य में वह चरम स्थिति प्राप्त की, जिसे वैश्विक प्रेम की श्रेणी में रखा जा सकता है. वे कहते हैं कि यह संसार तो कांच के समान है. मैंने इस निराधार समझने की भूल की थी. इसका रूप अपार है. जिसमे हर गतिविधि का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है.

मैं समुझ्यों निरधार, यह जग कांचो कांच सौ.

एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ.

मीर कवि अपनी उद्भावनाओं को गति प्रदान करते हुए इसे अल्लाह से जोड़ देते हैं. यही आत्मा की चरम अवस्था है, जहाँ उसे परमात्मा के दर्शन होते है. हर जगह, हर पल होते हैं. वे कहते हैं कि जब प्रेम अपने विशुद्ध रूप को पा लेता है, तो हर जगह उस अल्लाह के ही दर्शन होते हैं.

सरा पा में उसके नज़र करके तुम,

जहाँ देखो अल्लाह अल्लाह है.

अपने अनुभवों को शब्द रूप देते हुए मीर कवि कहते हैं कि जब से अल्लाह मेरी नज़रों में समाया है, तबसे जिधर देखता हूँ, उधर वही दिखाई देता है. अपने इस अनुभूतिजन्य ज्ञान को वे इन शब्दों में काव्यवत रूप प्रदान करते हैं.

समाया है जबसे नज़रों में तुम मेरी,

जिधर देखता हूँ, उधर तू ही तू है.

मीर ने अपनी आगे की रुबाइयों में भी विश्व प्रेम के बारे में खूब कहा है –

आँखें लगी रहेंगी, बरसों वहीँ सभों की,

होगा कदम का तेरे जिस जा निशां जमीन पर.

हिंदी साहित्य के प्रखर हस्ताक्षर अयोध्या सिंह उपाध्याय, हरिऔध जी कहते हैं कि जब से मेरे हृदय तल में विश्व प्रेम जागृत हुआ है, तब से मैं इस चराचर के हर प्राणी से प्यार करने लगा हूँ. मैं प्यार के विविध रूपों का दर्शन करने लगा हूँ. जो मैंने अपने आराध्य श्याम में दिखा है, वही इस संसार में देखने को मिलता है.

पाई जाती जगत जितनी वस्तु है जो सबो में,

मैं प्यारे को विविध रंग औ रूप में देखती हूँ.

तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूंगी?

यों है मेरे हृदयतल में विश्व का प्रेम जागा.

पाती हूँ विश्व प्रियतम में, विश्व में प्राण प्यारा,

ऐसे मैंने जगतपति को श्याम में है विलोका.

हिंदी और उर्दू के प्रसिद्द कवि नजीर विश्व प्रेम की नजीर इस तरह से पेश करते हैं. वे कहते हैं कि विश्व प्रेम में मनुष्य की ऐसी स्थिति हो जाती है कि वह अपनी हर आन, हर बान, हर ढंग, हर पहचान में वही दिखाई देता है. वे आगे कहते हैं कि आशिक का हृदय इतनी उच्चता प्राप्त कर लेता है कि उसे हर रंग की पहचान हो जाती है.

हर आन में, हर बान में, हर ढंग में, पहचान में,

आशिक है तो दिलवर को हर एक रंग में पहचान.

हिंदी साहित्य के जन कवि महाकवि तुलसीदास, जिनकी चौपैयाँ और दोहे आज भी जनमानस की जबान पर थिरकते रहते हैं, हर समस्या के समाधान के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं. साक्ष्य के रूप में भी उनका उपयोग किया जाता है. वे जितने तब प्रासंगिक थे, उतने ही आज भी है, और कल भी रहेंगे. वे कहते हैं कि

कुस-साधारी निहारि सुहाई, कीन्ह प्रनाम प्रदक्षिण जाई.

चरण-रेख-रज आखिंह लाई, बनई न कहत प्रीति अधिकाई.

हिंदी साहित्य के प्रसिद्द कवि आनंदघन विष प्रेम के सम्बन्ध में अपनी उद्भावनाओं को इस प्रकार व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि -

विरह विधा की मूरि, आँखिन में राखो पूरि.

धूरि तिन पायन की, हा हा नैकु आनि दे.

महाकवि ग़ालिब के विश्व प्रेम की बात न करें, तो यह विषय ही अधूरा रह जाएगा. वे कहते हैं कि यह संसार तेरे हर नक़्शे कदम का गवाह है. वह उस पर नज़र रखता है. इसी सन्दर्भ में वे लिखते हैं कि -

जहाँ तेरा नक़्शे कदम देखते हैं.

ख्यावा ख्यावा ईरम देखते हैं.

जन्मांध सूरदास की आँखों ने भी इस विश्व प्रेम का दर्शन किया. उनकी इन पंक्तियों के माध्यम से यह सिद्ध हो अतः है कि विश्व प्रेम उस परम पिता परमात्मा का ही एक रूप है. यदि ईश्वरत्व को प्राप्त करना है तो विश्व के सभी प्राणियों से प्रेम करना सीख लो. सूरदास जी कहते हैं कि

कारे तन अति चुवत गंड मद, बरसात थोरे-थोरे.

रुकत न पवन महावत हूँ पे, मूरत न अंकुश मोरे.

अपनी आगे की पंक्तियों में विश्व प्रेम को और भी अधिक साफ़ तरीके से व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं कि -

आज घन श्याम की अनुहारि.

उने आये सावरें, सखि ! लेहि रूप निहारि.

इंद्र धनुष मनि पीत वसन छवि, दामिनी दसन बिचारि.

जनु बग पांति माल मोतिन की, चिते लेत चित हारि.

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिष्ठा गद्यकार के रूप में है, साहित्य के इतिहासकार के रूप में है. पर उन्होंने जब तब अपने हृदय के कोमल भावनाओं को उद्गारित करने के लिए कविताओं की भी रचनाएं की है. उनकी विश्व प्रेम की झलक देती इस कविता को मैंने यहाँ उदधृत किया है.

आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि

सबसों बढिके सदा तुम्हे चाहों और चाहि हौ.

सबके हित जो वस्तु रह्यो, खोजत औ रहिह.

ताहि तिहारे हेतु होजीहौ अधिक सबन सो.

धीरज याते धरौ छाडि चिंता सब मन सो.

सबसो बढिके प्रीति करी, तुमसो मैं प्यारी.

कारण, मेरी प्रीति सकल प्राणिन पे भारी.

हिंदी साहित्य यह इतर साहित्य में रेखांकित किये जा सकने वाले हर भक्त साहित्यकारों ने विश्व प्रेम की ही बात की है. विश्व परिवार की बात की है. स्वामी राम तीर्थ इसमें अग्रणी है. उनकी इन पंक्तियों में तो विश्व प्रेम ही अपने सम्पूर्ण रूप में उतर पड़ा है, ऐसा जान पड़ता है.

स्वामी राम तीर्थ कहते हैं –

हर जान मेरी जान है, हर एक दिल है मेरा दिल.

हाँ, बुलबुलों गुल, महरो महकी आँख में है तिल मेरा.

इन चंद उदहारण के माध्यम से हम यह कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में यत्र-तत्र विश्व प्रेम की बात हुई है, यह सच नहीं है. बल्कि यदि सम्पूर्ण साहित्य को उद्दात्त नज़रों से देखें तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि हिंदी साहित्य विश्व प्रेम का ही पर्याय है. उसकी हर विधा में हमें प्रेम के ही दर्शन होते हैं.

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, वरिष्ठ गांधियन स्कॉलर, पत्रकार व्

इंटरनेशनल को-ऑर्डिनेटर – महात्मा गाँधी पीस एंड रिसर्च सेंटर घाना, दक्षिण अफ्रीका

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