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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और..... (कजरी)

फिर एक कहानी और.....    (कजरी)
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मखमली गद्दे पर बैठी उस अद्वितीय सुन्दरी ने अपने पैरों को थोड़ा सा हिलाया, पैर में बंधे घुंघरू बोल उठे। साजिन्दों को इशारा मिला, तबले-सारंगी पर सिद्ध उंगलियां खेलने लगीं। उसने मुस्कुरा कर गीत कढाया...

श्रोता झूम उठे। सिक्के बरसने लगे... सुन्दरी की मुस्कान फैल गयी। कोने में बैठे उस सजीले नौजवान ने भी अपनी सिक्कों की पोटली एक ही बार में फेंक दी और रोज की तरह बोला, " आज तो एक कजरी सुना ही दो बाई, पूरा सावन निकल गया अब तो..."

उसकी मुस्कान खिल गयी, जैसे उसकी आत्मा मुस्कुरा उठी हो। चिढ़ाती हुई बोली, " हट..."

युवक ने मुस्कुरा कर कहा, " चलता हूँ! लगता नहीं कि इस जनम में तू मेरे लिए कजरी गायेगी... मेरे सारे पैसे यूँ ही बर्बाद हो रहे हैं।"

गायिका ने पीछे से छेड़ा, "कल आना, कल जरूर सुनाएंगे... वादा!"

वह मुड़ कर बोला, "भक झूठी... अब कभी नहीं आऊंगा..." उसकी मुस्कान बढ़ गयी। वह जानती थी, कि वह जरूर आएगा...

वह कुछ ज्यादा ही सुन्दर थी। इतनी ज्यादा कि अम्मा ने नाम ही सुन्दर रख दिया था। जब बड़ी हुई और कोठा संभाला तो बनारस के रसिकों ने नाम दिया सुन्दर वेश्या...

जितना सुन्दर उसका रूप था, उसके हजारगुना अधिक सुन्दर था उसका गला, और उसके हजारगुना सुन्दर होता था उसका नृत्य! यूँ ही नहीं वह उस गन्धर्वलोक की रानी थी।

वह बाजार में बैठती थी, इसलिए अपने ग्राहकों के रग रग को पहचानती थी। पर वह युवक उसे अलग लगता था। उसे उसकी आँखों में तीव्र वासना नहीं, एक मासूम हठ दिखता था। जैसे उसका रोम रोम केवल एक ही बात कह रहा हो, "एक कजरी गाओ न..." उसके साजिंदे पहले ही जान गए, पर सुन्दर वेश्या को सबसे बाद में पता चला कि कोठे पर नकली प्रेम बेचते बेचते जाने कब वह उस युवक को प्रेम करने लगी थी।

उसे उसकी मासूम फरमाइश बड़ी प्रिय लगती थी। वह बार बार उसके मुँह से सुनना चाहती थी कि एक कजरी सुना दो न... इसीलिए कभी सुनाती नहीं थी। एक बार सुना दिया तो अगली फरमाइश में वह बात नहीं रह जाती... वह जानबूझ कर रोज टाल जाती थी।

उसे भी शायद सुनने की जिद नहीं थी। वह रोज एक बार कहता, और पराजित हो कर लौट जाता। कुछ पाने की आशा, पा लेने की खुशी से अधिक सुन्दर होती है। उसे भी शायद मनुहार में ही आनन्द मिलता था। प्रेम वह भी करता था, शायद उसे पता नहीं था।

अंग्रेजी गुलामी के दिन थे, और वह माटी का आदमी था। अपनी धरती, अपना धरम, अपनी परम्परा अपने लोगों की बात करने वाला सरदार... अंग्रेज ऐसों को पसन्द नहीं करते थे। वह बहुत दिनों से उनकी निगाह में था। उस दिन लहुराबीर की सड़क से गुजरते उसने देखा, सड़क पर साग बेंच रही बुढ़िया की पूरी टोकरी उठा ली उस अंग्रेज अफसर ने... बुढ़िया ने विरोध किया तो उसकी छाती पर एक लात जमा दी साहब ने। साथ मे पत्नी और बेटी थी, सो रोब दिखाना चाहते थे शायद... सरदार का खून खौल उठा। गया और हाथ की लाठी से एक लाठी साहब के सर पर, साहब खून फेंक कर मर गए।

शाम को युवक फिर सुन्दर वेश्या के कोठे पर था। आज उसकी सिक्कों की पोटली कुछ ज्यादा ही बड़ी थी। उसने सब दे दी, फिर गिड़गिड़ा कर बोला, "आज तो कजरी सुना ही दे कसाइन... जाने फिर मौका मिले न मिले..."

सुन्दर ने छेड़ा, " कजरी से ऐसा क्या प्रेम है हुजूर जो जीभ पर हमेशा वही रहती है... हम क्या उस मुई कजरी से कम सुन्दर हैं?

"ऐसा नहीं है रे! सावन में मेरी माँ कजरी गाती थी, तभी से पसन्द है। मां के जैसा कोई नहीं गा पाता... तू शायद गा सके, गा न!" युवक ने सामान्य स्वर में कहा।

सुन्दर ने रोज की तरह मुस्कुरा कर कहा, "कल गाऊँगी... वादा रहा। कल आना जरूर।"

युवक ने एक लंबी सांस ली और कहा, " ठीक है, आऊंगा..."

सुन्दर आश्चर्यचकित हुई। वह कुछ बोलती, पर सरदार निकल गया। अगली सुबह नगर भर में खबर फैल गयी कि सरदार पकड़ा गया। पुलिस ने उसे मिर्जापुर भेज दिया है, या तो फाँसी होगी या वहीं से रंगून जेल भेज दिया जाएगा।

सुन्दर को खबर मिली तो वह सन्न रह गयी। जैसे आसमान से गिर पड़ी हो। जाने कितने सपने एकसाथ टूट गए। कोठा उदास हो गया, छत से लटकी दीपों की झालर बुझ गयी।

शाम के समय बूढ़े तबलची ने पूछा, "बेटा लोग जुटने लगे हैं। कह देता हूँ कि तेरी तबियत ठीक नहीं है, वापस चले जाँय..."

उसकी आंखें भरी हुई थीं। उसने अपने प्रेम को दुपट्टे में पोंछा और बोली, "यह बनारस है काका! यहाँ वेश्याओं को भी अपना धरम निभाना होता है। कोठा बन्द नहीं होगा। चलो, आती हूँ।

सुन्दर वेश्या की महफ़िल में दीप जले, उसके घुंघरू बजे और उसने कजरी छेड़ी-- मिर्जापुर कइलs गुलजार हो, कचौड़ी गली सून कइलs बलमू...."

कहते हैं, बनारस में फिर उससे बढ़िया कजरी कोई नहीं गा पाया। लोग यह भी कहते हैं कि उस दिन के बाद वह केवल कजरी ही गाती थी। वह वेश्या थी...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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