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राम का नाम बदनाम न करें

राम का नाम बदनाम न करें
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अब तो खबरिया चैनलों को खोलते या अखबार का पन्ना पलटते हुए अंजाना सा डर सताने लगा है कि, कब कौन सा जारी नया फरमान पढ़ने/सुनने को न मिल जाए। कब कौन सामान्य ज्ञान में वृद्धि कर दे कि, 'चार मीनार' पहले ' चौड़ा सिंह स्मृति द्वार' हुआ करता था। जिसे फलां मुगल बादशाह ने ढहा कर चार मीनार बनवा दिया। इसकी चौड़ाई ही इस बात का सबूत है।

कम से कम आज के हालात को देख कर तो यही लगता है। यह हालात न तो एक दिन में पैदा हुए और न ही इस तरह का दावा करने वालों के हौसले एक दिन में बुलंद हुए। जाते-जाते अंग्रेज जो जहरीले पौधे रोप कर गए रूढ़िवादी ताकतों ने सालों-साल खाद-पानी देकर न केवल उसे मुरझाने से बचाया बल्कि अदृश्य तार-बाड़ लगाकर फलने-फूलने भी दिया। इसी का नतीज़ा है श्रीराम के नाम पर आएदिन या यूं कहें कि रोजाना कुछ न कुछ नया हो रहा है। कहीं आस्था के नाम पर तो कहीं परम्परा के नाम पर। मसलन फैजाबाद समर्थित बाबरी मस्जिद नामक विवादित ढांचे को आस्था का लबादा ओढ़ाया गया तो बाकी को हिंदू (सनातन नहीं) परम्परा का। वैसे इन दोनों को लबादे तो दशकों से यही ओढ़ाये जा रहे हैं लेकिन 21वीं सदी के 14वें साल के बाद से बहुसंख्यक होने की खुलेआम धमकी देने का नया रिवाज थोपा जा रहा है। बहुत पीछे न जाएं तो भी हाल ही में पांच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनावों के बाद के कुछ हफ्तों को नमूने के तौर पर लें। 10 मार्च 22 को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आये और 11 मार्च को कश्मीर फाइल्स नाम की एक फिल्म रिलीज हुई। जैसा कि नाम से ही लगता है कि यह कश्मीर समस्या पर है, पर यह पहली और अनोखी फिल्म नहीं है। इस फ़िल्म के रिलीज होने के साथ ही हिंदी-मुसलमानों में दशकों से व्याप्त नफ़रत की खाई और चौड़ा किया गया। इसे चौड़ा करने में परम्परा और टेक्नालॉजी का सहारा लिया गया, गड़े मुर्दे उखाड़े गए, फिल्म की लिंक साझा की गई, कई राज़्यों में फिल्म को कर मुक्त किया गया। मध्य प्रदेश ने तो अपने कर्मचारियों को एक दिन का सवेतन अवकाश फिल्म देखने के लिए देने की घोषणा की। फिल्म के प्रदर्शन के आगे-पीछे एक विशेष विचारधारा से जुड़े संगठन/संगठनों के लोगों ने भाषणबाजी/नारेबाजी भी की। उड़िसा के एक सिनेमा हॉल में कोई दूसरी फिल्म चल रही थी। इसी बीच एक खास विचारधारा के लोग घुसे और मैनेजर से उक्त फिल्म को बंद कर कश्मीर फाइल्स दिखलाने का दबाव डाला। आजाद भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना हो जब किसी प्रधानमंत्री ने न केवल एक फिल्म की तारीफों के पुल बांधे बल्कि विपक्षी दलों को 'जीभर कर' कोसा। गोदी मीडिया पर इस मुद्दे को लेकर मैराथन बहस हुई वो भी रूस-यूक्रेन युद्ध की भयावहता के बावजूद। कश्मीर फाइल्स पर चर्चा तब ही थमी जब उसी तरह का पर उससे बड़ा मुद्दा हाथ नहीं आ गया वो भी ताबड़तोड़। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद नतीजे आए एक महीने भी पूरे नहीं हुए कि, रामनवमी दस राज्यों में हिंसक घटनाएं हुईं। अब न तो रामनवमी पहली बार आई है और न ही इस अवसर पर पहली बार जुलूस निकला। दशकों नहीं सदियों से रामनवमी मनाती जाती रही है और कहीं-कहीं जुलूस भी निकाले जाते रहे हैं। पर शायद यह पहली बार हुआ होगा कि दस राज्यों दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, बिहार, कर्नाटक पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में हिंसक घटनाएं हुईं। इन राज्यों में हुई हिंसक घटनाओं में दो की मौत हो गई थी और 36 लोग घायल हो गए थे।

इसी साल मार्च में पश्चिम बंगाल के बीरभूम में एक टीएमसी नेता की स्त्रियां के बाद हिंसा भड़क उठी। इस घटना में उपद्रवियों ने पांच घरों को आग के हवाले कर दिया और पांच की जान ले ली।

तो जेएनयू तो पिछले कई सालों से एक खास विचारधारा वालों के आंखों की किरकिरी बना रहा है। फ़रवरी 16 में हुई हिंसक घटनाओं के बाद आएदिन इसे निशाना बनाया जाता रहा है। तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार छह साल बाद भी दक्षिणपंथी विचारधारा वाले छात्र इकाई की ही निगाह में नहीं चढ़ें हैं बल्कि इसके अन्य अनुषांगिक संगठनों को भी हज़म नहीं हो रहे हैं। हज़म तो गोदी मीडिया के एक बड़े हिस्से को भी नहीं हो रहे हैं। एक बड़ा समूह ' टुकड़े-टुकड़े गैंग का सरगना कह कर बदनाम कर रहा है तो कोई 'खान मार्केट गैंग' कह कर। जबकि साबित कुछ भी नहीं हुआ है। जेएनयू के साथ ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया भी 'गेहूं के साथ घुन' की तरह पिस गया। हालांकि यदा-कदा जादवपुर विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी लपेटे में आते रहे।

जिस तरह से पूत के पांव पालने में हमेशा नहीं रहते उसी तरह से यह या इसी तरह का मुद्दा भी शैशावस्था में नहीं है। समय-समय पर हवा देकर भड़काते रहे, समाज में व्याप्त नफ़रत की खाई को और चौड़ा करते रहे। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ। पर इसे राजनीतिक मान्यता (संरक्षण नहीं) पहली बार मिली वो भी खुल कर। मसलन एक चुनावी रैली में एक कैबिनेट मंत्री ने नारे लगवाए " देश के गद्दारों को, गोली मारो ...(खाली स्थान को भर नहीं सकता) को। इसी चुनाव में केंद्रीय गृह मंत्री आह्वान करते हैं कि, 'अबकी बटन इतनी जोर से दबाओ कि, करंट शाहीनबाग तक जाए। गौरतलब है कि इस स्थान पर सीएए और एन आर सी के खिलाफ शाहीन बाद की महिलाएं धरने पर बैठी हुई हैं। इसी बीच सत्तारढ़ दल के एक सांसद कहते हैं कि फलां पार्टी यदि चुनाव जीत जाएगी तो मुस्लिम महिलाओं के साथ घर में घुसकर बलात्कार होगा। अब जब मंत्री और नेता इस तरह की बातें कर रहे हैं तो दूसरों को तो बल मिले क्यों न ? यह इसी का नतीजा है कि, उत्तर प्रदेश के सीतापुर में अपने को संन्यासी कहने वाला बजरंग मुनि लाउडस्पीकर लगी जीप से एक मस्जिद के बाहर आकर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार की धमकी देता है और 11दिनों तक चौड़े से घूमता है। 12वें दिन तब गिरफ्तार होता है जब सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया का एक छोटे सा हिस्सा इसे रेखांकित करता है। हिंसा की तरह नफ़रती भाषण भी आग में घी का काम कर रहे हैं। तीर्थराज प्रयाग, हरिद्वार सहित कई जगहों पर धर्म संसद आयोजित कर एक समुदाय विशेष के प्रति नफ़रती भाषण। इंदौर में मनोज मुंतशिर का यह कहना कि, शाहजहां ने भुखमरी के दौर में करोड़ों खर्च कर ताजमहल बनवाया था। तो उस समय लोकतंत्र नहीं राजतंत्र था। राजतंत्र में राजा मनमानी ही करता है। कोई भी फैसला बहुमत से नहीं होता। पर लोकतंत्र में तो होता है। वैश्विक बीमारी कोरोना के दौरान मोदी सरकार का 20 हजार करोड़ की लागत से सेंट्रलविष्टा बनाने का फैसला क्या बहुमत का था ?

यदि हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग और रायपुर में धर्म संसद हुई तो हरियाणा के बुराड़ीं में हिंदू पंचायत। पर दोनों आयोजनों में एक धर्म विशेष के प्रति ज़हर उगला गया। बताते चलें कि 1893 में शिकागो में हुई धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया था। एक धर्म संसद इन दिनों की भी रही जिसमें एक धर्म विशेष के प्रति जमकर ज़हर उगला गया था। ध्यान रहे कि ऐसे आयोजनों में इस तरह के नारे लगाए जाते हैं धर्म की जय हो,अधर्म का नाश हो,प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो'। नारों में तो सद्भावना की बात की जाती है लेकिन दूसरे समुदाय के प्रति नफ़रत फैलाई जाती है। इसका मतलब यह कि, एक समुदाय जो कि बहुसंख्यक हैं वो अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को प्राणी ही नहीं मानता। तभी तो यति यतिश्वरानंद सरस्वती से लेकर बजरंग मुनि आदि मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार की बात करते हैं।

ज्ञात हो कि ऐसे लोग दूसरे धर्म/ समुदाय के प्रति ही नहीं बल्कि उसके पक्षधर लोगों के प्रति भी घृणा पाले हुए हैं, जो निष्पक्ष होकर अपना कार्य यानी मीडिया के लिए कवरेज करते हैं उनके ही खिलाफ रहते हैं,रोकते हैं, पिटाई करते हैं। अब हरियाणा के बुराड़ी को ही लें लीजिए। इस आयोजन की कवरेज करते समय पांच पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया जिसमें से चार एक धर्म विशेष के हैं और एक महिला। इन पत्रकारों के साथ आठ अगस्त 21 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए इसी तरह के आयोजन में बदसलूकी की गई थी। मामला दर्ज होने पर कुछ की गिरफ्तारियां हुई थीं‌। यह उदाहरण है न कि पहला मामला।

पहला मामला तो यह भी नहीं जब नवरात्रि पर एक समुदाय विशेष को निशाना बनाते हुए मांस की दुकानों को बंद रखने के लिए दक्षिणी दिल्ली के मेयर को सक्षम अधिकारी को पत्र लिखना पड़ा। इस नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है। अब नवरात्रि भी पहली बार नहीं पड़ा है। गुलाम भारत का तो आधिकारिक रूप से पता नहीं पर आजाद भारत की शायद यह पहली घटना हो। अब कोई बताएगा कि, सनातन धर्म की किस ग्रंथ में नवरात्रि पर मांस का सेवन मना है। जो नहीं खाते वो इन दुकानों तक नहीं आते, जब वे नौ दिनों तक आएंगे ही नहीं तो माहौल कैसे खराब होगा। अगर मुसलमानों से ज्यादा नहीं तो वे हिंदू कम भी नहीं जो मांस खाते हैं। फिर पूरे देश में लाखों लोग जुड़े हैं मांस-मछली के व्यवसाय से। बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों के खान-पान से ही क्यों चिढ़ है। बंगाल और समुद्री तट पर रहने वाली अच्छी-खासी आबादी मछली का सेवन करती है। फिर नवरात्रि पर चिकन-मटन की ही दुकानें ही कर्मों बंद रहे, मदिरा की कर्मों नहीं? 12 राज्य ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी 10 फीसद से ज्यादा है। नौ दिनों तक इतनी आबादी को उनके प्रिय व्यंजन से वंचित रखने का औचित्य क्या है? मेहरौली पार्षद आरती सिंह का कहना है कि कुतुबमीनार में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की जाए। जब वे ब्याह कर आयीं थीं तो उन्होंने गणेश जी की पूजा होते देखा था। विष्णु जैन नामक युवक ने अदालत की शरण ली है। उनका कहना है कि 27 मंदिरों को तोड़ कर कुतुबमीनार बनाया गया है। इसी तरह अज़ान को बंद करवाने पर तुले हुए हैं। उन्हें सोनू निगम की तरह लाउडस्पीकर की आवाज से उतनी दिक्कत नहीं है जितनी कि बजने से है कि लाउडस्पीकर बजता क्यों है। जितने समय लाउडस्पीकर बजेगा हम हनुमान चालीसा पढ़ेंगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि, अज़ान प्रतिदिन 5 बार होती है और हनुमान चालीसा मंगलवार को वो भी सूर्योदय से पूर्व। अज़ान के लिए लाउडस्पीकर की शुरुआत लोगों को नमाज़ की जानकारी देने के लिए 1936 में सिंगापुर के सुल्तानपुर से हुई थी और लाउडस्पीकर की 20वीं सदी के शुरुआत में। दोनों लाउडस्पीकर से पहले के हैं इसलिए लाउडस्पीकर की जिद छोड़नी चाहिए।

जैसा की शुरुआत में ही लिखा था कि टीवी खोलते ही किसी बुरे समाचार की आशंका बताते रहती है। इस लेख को शुरू करते समय ताज़ा मामला जेएनयू में मुख्य द्वार के साथ-साथ आसपास भगवा लगाने का था। आज शाम टीवी खोला तो दिल्ली के जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के अवसर पर निकाली गई शोभायात्रा पर पथराव का हो गया। सवाल फिर वही मुंह बारे खड़ा है कि हनुमान जयंती भी हर साल होती है और शोभायात्रा भी तो निकलती है फिर इस साल ही पथराव क्यों ? जेएनयू के गेट पर भगवा क्यों लगाया गया? अगर लगाना ही है तो पाकिस्तान और चीन की सीमाओं पर लगाएं, बाघा बार्डर पर लगाएं।

बताते चलें कि सारा धतकर्म धर्म के नाम पर हो रहा है और ' जय श्री राम' के नारा लगा कर हो रहा है। भगवान को मानने वालों के लिए और न मानने वालों के लिए भी राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं यानी पुरुषों में उत्तम। पुरुषों में उत्तम भगवान या राजा का नाम बदनाम न करें।





अरुण श्रीवास्तव

देहरादून

8218070103

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