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कश्मीर फाइल्स के बहाने...

कश्मीर फाइल्स के बहाने...
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पूरे देश इन दिनों एक ही चर्चा है वो है 'दि कश्मीर फाइल्स' की। अब यह बताना जरूरी है क्या कि, ये है क्या ? बावजूद इसके चर्चा में टाॅप पर है। मीडिया में जितना स्थान रूस-यूक्रेन युद्ध को नहीं मिल रहा है उतना इस " युद्ध " को मिल रहा है। हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐतराज हो कि, इसे युद्ध क्यों कह रहा हूं। नहीं कहता पर है तो युद्ध ही। रूस यूक्रेन हथियार लेकर लड़ रहे हैं तो भक्त/अंधभक्त सत्ता का कवच रूपी हथियार के सहारे अपनी ताकत का इजहार कर रहे हैं। गनीमत है कि बिना हथियार के दूसरा पक्ष अभी मुखर नहीं हुआ।

बहरहाल... बात कर रहा हूं द कश्मीर फाइल्स फिल्म की। नाम से ही जाहिर है कि यह कश्मीर पर बनी है। बनी तो इससे पहले भी है पर वो इतनी चर्चा में नहीं रही।

पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि मैंने अब तक यह फिल्म देखी नहीं और देख भी नहीं पाऊंगा इसलिए कि एक अर्से से सिनेमाघर गया नहीं टीवी पर देखा है और जब टीवी पर आएगी तब देखूंगा। अब यह धारणा आपके मन में घर कर गई होगी कि, जब फिल्म ही नहीं देखी तो आलोचना करने का अधिकार है क्या? पर क्या ज़हर की आलोचना करने से पहले ज़हर खाकर उसका असर देखना ही है !

बात मुद्दे की यानि 'दा कश्मीर फाइल्स' की। विषय/पटकथा पर अपनी बात रखूंगा पार्ट-2 (फिल्म देखने के बाद) में। पार्ट-1 यानी अभी फिल्म को लेकर मीडिया/सोशल मीडिया पर चल रही बहस पर। पांच राज्यों में समाप्त हुए विधानसभा चुनाव की पूर्व बेला के आसपास इस फ़िल्म को लेकर चर्चा शुरू हुई जो द्रोपदी की चीर (कहावत) की तरह बढ़ती कम बढ़वाई ज्यादा जा रही है। बढ़वाई इसलिए भी कि,

शायद यह पहली फिल्म है जिसका

प्रमोशन आदरणीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने यह कहकर किया कि, ... मेरा विषय कोई फिल्म नहीं है 'मेरा विषय है जो सत्य है वो सही स्वरूप में देश के सामने लाना देश की भलाई के लिए होता है'। यह सपाट बात है जिसे सपाट तरीके से कहना बुरी बात नहीं। बुरा तब है जब संदर्भ विशेष को लेकर कहा जाए। संदर्भ था कश्मीर फाइल्स। कश्मीर फाइल्स 1989 से कश्मीरी पंडितों के पलायन पर है। पलायन बंटवारे की तरह दुःखद होता है क्योंकि यह अपनों के बीच होता है और अपनों में होता है। चाहे वह गांव से शहर में हो या शहर से महानगर में। फिर कश्मीर से एक सम्प्रदाय विशेष का पलायन जो उसी तरह दुखद था और है जिस तरह से देश की आजादी के बाद बड़ी आबादी का सीमा के इस और उस पार से हुआ पलायन। दोनों ही घटनाओं में जितने लोग अपनी इच्छा से पलायन किए उससे ज्यादा पलायन को मजबूर किए गए। उस पलायन में वापस आने का रास्ता नहीं था पर इसमें था और है। पर यह फिल्म पूरी कहानी नहीं बताती। यह फिल्म यह नहीं बताती कि, कश्मीर का मुद्दा आज का नहीं देश की आजादी से पहले का है। यह फिल्म यह नहीं बताती कि, कश्मीर का मुद्दा कितना पेचीदा है। यह फिल्म यह नहीं बताती कि, कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी किसकी थी? यह फिल्म यह नहीं बताती कि कश्मीर में सीमा-पर से दिन प्रतिदिन बढ़ रहे घुसपैठ को रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी? यह फिल्म यह नहीं बताती कि, घुसपैठ न रोक पाना यह साबित करता है कि, हमारी जांच एजेंसियां नाकाम रहीं। यह फिल्म यह नहीं बताती कि, धीर-धीरे या अचानक जब मामला हाथ से निकलता रहा तब केंद्र सरकार किसकी थी ? किसके समर्थन से टिकी हुई थी ? उस समय राज्यपाल कौन थे ? मार-काट का दृश्य कम कर या 2 घंटे 50 मिनट की फिल्म का समय बढ़ा कर संक्षेप में यह बातें बताई जा सकती थीं और जेएनयू की तरह एएनयू नाम बदल कर भी ये सच बताए जा सकते थे।

यह भी शायद पहली बार हुआ कि पूरी की पूरी सत्तारूढ़ दल और उसके अनुषांगिक संगठन फिल्म के पक्ष में खड़े हुए बल्कि अति उग्रवादी संगठन भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रहे हैं। शायद यह भी पहली बार हुआ कि कश्मीर फाइल्स की पूरी की पूरी टीम से प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं मिले बल्कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह एवं आर एस एस के मुखिया मोहन भागवत भी मिले। शायद यह भी पहली बार हुआ कि, कश्मीर फाइल्स के मुखिया विवेक अग्निहोत्री को सीआरपीएफ कवरेज के साथ ही वाई श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की गई। किसी तरह की कोई सुरक्षा अग्निहोत्री जो ने मांगी नहीं थी और न ही किसी ने उनको धमकी दी थी। जबकि फिल्म पद्मावती को लेकर कर्णी सेना और हिन्दूवादी संगठन दीपिका पादुकोण के न केवल पीछे पड़े थे बल्कि कुछ ने तो बाकायदा ईनाम घोषित कर दिया था और कुछ ने तो उनकी नाक काट लेने की धमकी भी दी थी। जिस फिल्म सेंसर बोर्ड ने अपने समय के सर्वाधिक कट इस फ़िल्म में मारे थे उसी सेंसर बोर्ड की इस फ़िल्म की एक भी सीन काटे जाने की एक भी सूचना नहीं है। शायद यह भी पहली बार हुआ कि, इस फ़िल्म से जुड़े लोगों को उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया। शायद यह भी पहली बार हुआ कि, किसी राज्य की सरकार ने इस फ़िल्म को देखने के लिए अपने कर्मचारियों के लिए एक दिन का अवकाश घोषित किया। किसी सिनेमाघर (उड़ीसा) में भक्तों की भीड़ पहुंची उस समय पीएम का साक्षात्कार लेने वाले और आम कैसे खाते हैं सवाल पूछने वाले अक्षय कुमार की फिल्म बच्चन पांडे चल रही थी। भक्तों ने सिनेमाघर के मालिक को मजबूर किया कि वह फिल्म उतारे और कश्मीर फाइल्स दिखाये। अगर यह सही है तो लक्षण भी इसी तरह के लिए रहे थे। शायद यह भी पहली बार हुआ कि, किसी फिल्म को देखने के लिए ' लिंक ' शेयर किए गए। शायद यह भी पहली बार हुआ कि किसी सिनेमाघर के अंदर और बाहर उत्तेजक भाषण दिए गए हों और नारे लगाए गए हों। अब जब इतने शायद किसी एक फिल्म के लिए हुए हों तो एकाध शायद यह भी हो कि, स्कूल, आफिस या बाज़ार आते समय रास्ते में उत्तेजित भीड़ रोककर पूंछे द कश्मीर फाइल्स देखी या नहीं। न कहने पर धक्का मारकर भेजे जाओ और देखकर आओ। टिकट फलां संगठन के कार्यालय में जमा कर पावती लैमिनेशन कराकर अपने पास रखो और मांगने पर दिखाओ।

फिल्म फिल्म है और इतिहास इतिहास। दोनों में घालमेल न करें। अगर फिल्म से ही सच्चाई सामने आती है तो बंद कर देनी चाहिए तमाम जांच एजेंसियां।

फिल्म का मतलब इंटरटेनमेंट... इंटरटेनमेंट...और इंटरटेनमेंट...





अरुण श्रीवास्तव,

देहरादून

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