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किसान आन्दोलन एक अनचाहा डेन्ट

किसान आन्दोलन एक अनचाहा डेन्ट
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सुनील कुमार सुनील

साल 2020 अपने अन्तिम पडाव पर था, कोरोना और लाॅकडाउन की बदहाली से उपजी देश में स्थितियां और उत्पन्न स्थितियों के परिणामस्वरूप रोटी और रोजगार का संकट भयाक्रांत समाज हांफती अर्थव्यवस्था और कारोबार के बीच एक खबर जो समाज में तेजी से अपनी जगह बना रही होती वह खबर होती है सरकार का कृषि कानूनों को संसद में पेशकर पारित करना।

ध्यान देने वाली बात यहां यह है कि जिस तरह से लोगों ने नोटबंदी की घोषणा को सुना व देखा था ठीक उसी तरह की पुनरावृत्ति कोरोना के लिए लगाए गये लाॅकडाउन में भी देखने को मिली थी देश के प्रधानमंत्री ने लाॅकडाउन घोषित कर दिया कम पढा लिखा मजदूर सहित हर किसी ने प्रधानमंत्री का साथ देने की सोंची मगर प्रधानमंत्री के लिए कोरोना के खिलाफ जंग में मजदूर तबका जो डेली कमाने और खाने पर आश्रित था महज आठ दिन में ही मजबूत की जगह मजबूर हो गया और एकाएक हुए देशव्यापी लाॅकडाउन के कारण मजदूरों ने हजारो किमी. पैदल चलना शुरू कर दिया। बहुत से लोग रास्ते पर हताहत भी हो गये मगर इनका एक कांसेप्ट था कि चलते चलते हो सकता है घर पहुंच जाएं वर्ना यहां तो मरना तय है और कोरोना के प्रति जंग की प्रतिबद्धता को भूख और डर के माहौल ने तोड़ दिया। जैसे तैसे हालात अभी सामान्य भी न हुए थे कि कृषि कानूनों को लेकर किसानों में खासकर पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बगावती तेवर धारण कर विरोध में किसान संगठन उतर आए।

क्यों मिला व्यापक समर्थन

दरअसल यह कोरोना काॅल के ठीक बाद ही किसानों के असंतोष ने आन्दोलन का रूप लेना शुरू कर दिया था और किसान संगठन दिल्ली की सीमाओ को सील करने की घोषणा कर चुके थे यहां तक कोई बात न थी मगर कोरोना के कारण मजदूर वर्ग के सामने उत्पन्न हुआ रोटी का संकट और रोटी के संकट के चलते रोटी की महत्ता का ठीक-ठीक अन्दाजा तथा आन्दोलन के दौरान अनवरत चलते लंगरो के कारण भूखे लोगों को रोटी की व्यवस्था ने भीड को रोके रखने का काम किया। लोगों के पास रोजगार न था मगर जीवन के लिए रोटी की कीमत क्या है यह कोरोना मिसमैनेजमेंट के परिणामस्वरूप उजागर सरकारी विफलता ने दुविधाहीन जो निष्कर्ष मजदूर वर्ग, अर्द्ध कृषक तथा किसानों के सामने निकलकर आया उससे साफ एक साफ संदेश था कि किसान समाज अब ऐसे किसी भी रिस्क और अश्वासन के भुलावे में नहीं आना चाहता था यह लोकतंत्र में सरकार के प्रति अविश्वास की इंतेहा का चरम था जब गांधी के देश में सैकड़ो किसान मरकर भी शान्तिपूर्वक आन्दोलन जान की बाजी लगाकर सैकड़ो मरकर हजारों मरने के लिए तैयार होकर आन्दोलन करके सरकार को विवश करने का काम कर रहे थे।

आन्दोलन एवं राजनीति का संबंध

यह सर्वमान्य व निर्विवादित निष्कर्ष है कि हर आन्दोलन एक राजनीतिक चेतना को तीखा करता है मगर यह भविष्यवाणी बिल्कुल भी नहीं की जा सकती कि एक आन्दोलन का असर समाज में निश्चित रूप से कितना पड़ता है। दरअसल लोकतंत्र का कोई भी आन्दोलन जरूरत और सरकारी व्यवस्था व सरकारी नीतियों से असंतुष्ट/प्रभाव का परिणाम होता है जो किसी व्यक्ति, समाज, वर्ग द्वारा किया जाता है और यह जब जनांदोलन का रूप लेता है तो इसका सीधा प्रभाव राजनीति में दिखाई देता है। जो सम्बन्ध राजनीति और समाज का है वही सम्बन्ध आन्दोलन और राजनीति का है क्योंकि यह दोनों क्रियाएं अन्ततः समाज में ही घटित होती होती हैं। आन्दोलन और राजनीति के सम्बन्ध को अम्बेडकर विश्वविद्यालय के विषय विशेषज्ञ से मीडिया कर्मियों द्वारा सवाल किया गया कि क्या किसान आन्दोलन का फर्क यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव में पडेगा तो विशेषज्ञ का स्पष्ट जवाब था आन्दोलन की वजह से एक बेरहम किस्म की रोशनी पैदा होती और यह राजनीतिक संकट का कोई एक पहलू होता है और यदि यह इतना प्रबल हो जाए कि दूसरे छोटे संकटों को न सिर्फ रेखांकित कर जाए बल्कि सामने ले आने में सक्षम हो जाए तो इसके परिणामस्वरूप सरकार की जो कमजोरियां होती हैं वह निकलकर सामने आ जाएं तब यह निःसंदेह प्रभावी हो जाता है।

दरअसल किसान आन्दोलन की प्रभावी मजबूती यह भी रही कि यह आन्दोलन राजनीतिक कम, गैरराजनीतिक व्यक्तियों एवं दबाव समूहों द्वारा मुख्यतः संचालित था जिसे राजनीतिक तथा गैर राजनीतिक और मजदूर किसान वर्ग का पर्याप्त समर्थन प्राप्त था तथा एक लम्बे समयान्तराल तक चलने के कारण लोगों को भावनात्मक रूप से अपने साथ जोड़ने में सफल रहा।

आन्दोलनरत किसानों के खिलाफ दुष्प्रचार और राजनीतिक व्यक्तियों के गैर-जिम्मेदार बयानों ने आन्दोलन के प्रभाव को और तीखा बनाने का काम किया साथ ही साथ मीडिया की पूर्वाग्रही रिपोर्टिंग भी एक वजह रही और मेन स्ट्रीम मीडिया के बजाय यह सोशल मीडिया में जबरदस्त ट्रैन्डिग पोजीशन हासिल करने में सफल हो सका।

इस सम्बन्ध में जौनपुर से सम्बंधित समाजसेवी एवं राजनीतिक विश्लेषक अजीत प्रताप सिंह का मानना है कि नि:सन्देह इसका व्यापक असर विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा और अगर ऐसा नहीं होता है तो हमको आन्दोलन और चुनावी राजनीति के सम्बन्ध पृथक कर देना चाहिए और इस धारणा को मजबूत करना चाहिए कि आन्दोलन अलग चीज है और राजनीति अलग चीज है जो व्यवहारिक रूप से बिल्कुल भी सम्भव नहीं है।





(फोटो-अजीत प्रताप सिंह)

आन्दोलन का प्रभाव

यह आन्दोलन मुख्यतः केन्द्र सरकार की देन था, केन्द्र सरकार द्वारा पारित कृषि कानूनों के खिलाफ था चूंकि केन्द्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने के कारण राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसका जबरदस्त और प्रत्यक्ष प्रभाव निकट भविष्य में सम्पन्न होने वाले विधानसभा चुनावों पर अवश्य पडेगा।

विश्लेषक ऐसा भी मानते हैं कि हो सकता है यदि यह आन्दोलन न होता तो सत्तारूढ दल अपनी कमियों या असफलताओं को ढकने में सक्षम भी हो जाता मगर इस एक आन्दोलन की वजह से उपजी एंटी कंबेन्सी ने आग में घी का काम करते हुए पूर्ववर्ती को न सिर्फ प्रत्यक्ष कर दिये बल्कि नोटबंदी,जीएसटी,कोरोना काल की असफलताएं, मंहगाई, बेरोजगारी, अपराध,स्वास्थ्य आदि पर जबरदस्त पोल खोलने वाला साबित हो रहा है।

लोग अब हर मुद्दे पर दो तरह की बातों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं पहला यह कि सरकार एवं सत्तारूढ दल का बयान क्या है और विभिन्न स्रोतों से जारी एवं एकत्र किए गये डेटा क्या हैं और इन दोनों के बीच जो अन्तर पाया जाता है उस लोग दोहरापन घोषित करके अपने अविश्वास को और मजबूत करते प्रतीत होते हैं। हालांकि तीनों कृषि कानून वापस करने की केन्द्र सरकार न सिर्फ घोषणा करके यह कानून वापस ले चुकी है बल्कि अपनी बात न समझा पाने का अफसोस भी प्रधानमंत्री द्वारा जाहिर किया जा चुका है लेकिन 3 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में किसानों को भाजपा के सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे द्वारा प्रदर्शन कर रहे किसानों को गाडियों से कुचलकर मारने की

घटना ने इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप उपजे आक्रोश को चरम पर पहुंचाने का काम किया है।

लोग इस घटना के बाद बेहद आक्रोशित हो चुके थे यूपी सरकार के पास मौका था जब वह निष्पक्ष होकर त्वरित गिरफ्तारी कराती लेकिन इसके उलट पुलिस के लगातार टालने और घटना के बाद तात्कालिक बयानों ने तथा सुप्रीम कोर्ट की डांट तथा विपक्ष के दबाव एवं जांच में दोषी पाए जाने के कारण यह डेन्ट स्थायी रूप से वर्तमान में चर्चा का विषय बना हुआ है और विपक्ष इस डेन्ट की भरपायी न होने देने जैसे इरादे के साथ लगातार किसान आन्दोलन के जख्मों को कुरेद रहा है।

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