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मनुष्य का स्वयं के दासत्व से मुक्त होना ही ज्ञान है।

मनुष्य का स्वयं के दासत्व से मुक्त होना ही ज्ञान है।
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"महाराज! मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ और नियमानुसार जलसमाधि लेने या दासत्व स्वीकार करने को प्रस्तुत हूँ।" बालक अष्टावक्र से शास्त्रार्थ में पराजित होने के बाद शीश झुका कर खड़े आचार्य बंदी ने महाराज जनक से कहा।

"रुकिए आचार्य! यह तो मात्र आपके पराजय का फल हुआ, पर आपके उस तुच्छ अभिमान का फल कौन भोगेगा जिसके कारण आपने जाने कितने ऋषियों को जल समाधि लेने या दासत्व ग्रहण करने पर विवश कर दिया था। महाराज बताएं कि अपने ज्ञान के घमण्ड में असंख्य ऋषियों की हत्या करने वाले ऋषि बन्दी को उनके अभिमान के लिए वे क्या दण्ड निर्धारित करते हैं।" बालक अष्टावक्र के ज्ञान से समूची सभा प्रभावित थी, पर उनके इस प्रश्न ने सबको आश्चर्य और चिन्ता में डाल दिया।

महर्षि अष्टावक्र ऋषि कहोड़ के पुत्र और महर्षि उद्दालक के दौहित्र थे। उनके पिता ऋषि कहोड़ महाराज जनक की सभा में आचार्य बन्दी से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर शास्त्रार्थ के नियमों के अनुसार उनके दास हो गए थे। पिता को इस अपमान से मुक्ति दिलाने के लिए बारह वर्ष की आयु के बालक अष्टावक्र ने आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ कर उनको पराजित किया था। अब बंदी उनके समक्ष दास भाव से खड़े थे और बालक अष्टावक्र उग्र थे। उनके प्रश्नों का उत्तर किसी के पास नहीं था। शीश झुकाये आचार्य बंदी ने कहा,"मैं पूर्व में मुझसे पराजित समस्त ऋषियों को मुक्त करता हूँ, इससे आगे और क्या करूँ?"

"वे तो आपकी पराजय के साथ ही मुक्त हो गए आचार्य बंदी! इसमें आपका कोई योगदान नहीं। मेरे पिता और अन्य समस्त ऋषि मुक्त हैं। पर आपको क्या दण्ड दिया जाय, यह आप ही बताएं।" अष्टावक्र दृढ़ थे। बंदी ने पराजित भाव से कहा- आप जो दण्ड दें मुझे वह स्वीकार है।

अष्टावक्र ने कहा, "मैं आपको मुक्त करता हूँ आचार्य! यही आपका दण्ड है। पराजय स्वयं में एक ईश्वर द्वारा दिया गया एक कठोर दण्ड है। जो पराजित हो जाय उसे दण्डित करना अमानवीय व्यवहार है। आपने यह अपराध किया पर मैं नहीं करूंगा। मैं बस यह कहूंगा कि जो ज्ञान व्यक्ति में घमण्ड भर दे वह ज्ञान निरर्थक है। आप अभी भौतिक दुर्गुणों से भरे हुए हैं। मैं आपको अपने दासत्व से मुक्त करता हूँ पर स्वयं के दासत्व से मुक्त होने के लिए आपको कठिन प्रयत्न करना होगा। मनुष्य का स्वयं के दासत्व से मुक्त होना ही ज्ञान है।"

समूची सभा साधु साधु की ध्वनि से गूंज उठी। प्रसन्न हो कर उठ खड़े हुए महाराज जनक ने कहा-"हे ऋषि! आपने मात्र आचार्य को पराजित कर अपने पिता को मुक्त ही नहीं किया, बल्कि यह सिद्ध किया कि योग्य पुत्र अपने असंख्य पूर्वजों की पीड़ा हर लेता है। पिता को उसके बन्धनों से मुक्ति दिलाना ही पुत्र का प्रथम कर्तव्य है। आप धन्य हैं..."

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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