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महेन्द्र मिसिर!

महेन्द्र मिसिर!
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बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में भोजपुरिया जवार के सबसे प्रखर राष्ट्रवादी स्वर का नाम था महेन्द्र मिसिर! एक ऐसे साहित्यकार जो मन से कोमल गीतकार थे और मस्तिष्क से एक कठोर क्रांतिकारी। जिन्होंने अंग्रेजी व्यवस्था में भारतीय क्रांतिकारियों का सहयोग करने के लिए नकली नोट छापना शुरू किया। इसके कारण वे पकड़े गए और जेल भी गए।

महेंद्र मिश्र लगभग छः वर्ष जेल में रहे। उन्ही दिनों उन्होंने भोजपुरी में रामायण लिखी। महेन्द्र के गीतों में आध्यात्म है, श्रृंगार है, संयोग है और वियोग भी, व्यवस्था का विरोध है और नारीवादी स्वर भी... पर व्यवहारिक दृष्टि से महेन्द्र मिश्र फक्कड़ थे। कोठे पर जाते और नर्तकियों के लिए भी गीत लिखते थे। भोजपुरी साहित्य के तथाकथित अकादमिक महंत उन्हें केवल यह कह कर खारिज कर देते हैं कि वे तो कोठों पर जाते थे। वैसे उन्हीं के कालखण्ड में बांग्ला वाले शरतचन्द्र चटोपाध्याय भी हुए थे और कोठों के प्रति उनका लगाव भी सभी जानते हैं। पर किसी ने इसके लिए शरतचन्द्र पर कभी कोई आक्षेप नहीं लगाया।

वर्तमान साहित्य संसार रेड लाइट एरिया में काम करने वाली लड़कियों को सम्मान दिलाने में लगा हुआ है, पर वे ही लोग महेन्द्र मिसिर को नर्तकियों के लिए लिखने के कारण खारिज कर देते हैं। इसे पक्षपात कहें या फिर कुंठा, पर इस के पीछे का कारण समझना बहुत कठिन नहीं है।

भिखारी ठाकुर मूलतः रंगकर्मी थे पर आज भोजपुरिया जगत उन्हें साहित्यकार के रूप में जानता है। महेन्द्र साहित्यकार थे, पर उनकी पहचान गायक के रूप में है। क्यों? अस्सी के दशक तक भिखारी ठाकुर भी महेन्द्र मिसिर की तरह लगभग गुमनाम ही थे। उनकी पहुँच लोक में तो खूब थी, पर अकादमियों में नहीं थी। उनकी अकादमिक और सरकारी कार्यक्रमों में धमक तब पहुँची जब कथाकार संजीव ने भिखारी को लेकर उपन्यास "सूत्रधार" लिखा। हालांकि संजीव ने भिखारी को नायक बना कर केवल इसलिए लिखा कि वे भिखारी ठाकुर के बहाने भारत और भारतीयता पर प्रश्नचिन्ह उठा सकें। जिन्होंने संजीव को पढ़ा है वे जानते हैं कि संजीव का लेखन एक विशेष वर्ग के विरुद्ध कुंठा और घृणा से लिप्त है। अपनी एक दो किताबों में तो उन्होंने मुखर होकर ब्राह्मणों-ठाकुरों के लिए अपशब्द भी लिखे हैं। भिखारी ठाकुर के बहाने उनका कुत्सित प्रचार सफल हो गया। महेन्द्र मिश्र के नाम में घृणा परोसने का अवकाश नहीं मिला, सो उनके विराट रचना संसार को साहित्यिक प्रतिष्ठानों ने केवल पूर्वी की रस्सी से बांध कर सीमित कर दिया।

महेन्द्र मिश्र को पूर्वी का जनक कह कर मुक्त कर देना ऐसा ही है, जैसे संजय भंसाली ने महान योद्धा पेशवा बाजीराव को अपनी फिल्म में एक पागल आशिक दिखा दिया। महेन्द्र मिसिर पूर्वी के आगे भी बहुत दूर तक गए हैं। बस उनको लेकर ईमानदार चर्चा होनी चाहिये।

आज उनके उनके जन्मदिन पर उनके गाँव जाना था, पर कुछ व्यक्तिगत कारण भारी पड़ गए। पर नमन उन उत्साही लोगों को जो हर साल वहाँ आयोजन कराते हैं।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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